वैष्णव भजन  »  श्री चैतन्याष्टकम्
 
 
श्रील रूप गोस्वामी       
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सदोपास्यः श्रीमान् धृत - मनुज - कायैः प्रणयितां
वहद्भिर्गीर्वाणैर्गिरिश - परमेष्ठिप्रभृतिभिः ।
स्वभक्तेभ्यः शुद्धां निज-भजन - मुद्रामुपदिशन्
स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥ 1 ॥
सुरेशानां दुर्गं गतिरतिशयेनोपनिषदां
मुनीनां सर्वस्वं प्रणतपटलीनां मधुरिमा ।
विनिर्यासः प्रेम्णो निखिल - पशुपालाम्बुज - दृशां
स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥ 2 ॥
स्वरूपं बिभ्राणो जगदतुलमद्वैत - दयितः
प्रपन्न - श्रीवासो जनित - परमानन्द - गरिमा ।
हरिदनोद्धारी गजपति - कृपौत्सेक - तरलः
स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥3 ॥
 
 
रसोद्दामा कामार्बुद-मधुर-धामोज्ज्वल-तनु-
र्यतीनामुत्तंसस्तरणि-कर- विद्योति-वसनः ।
हिरण्यानां लक्ष्मीभरमभिभवन्नाङ्गिक- रुचा
स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥4॥
हरे कृष्णेत्युच्चैः स्फुरित - रसनो नामगणना-
कृत - ग्रन्थि श्रेणी - सुभग- कटिसूत्रोज्ज्वल- करः ।
विशालाक्षो दीर्घार्गल - युगल-खेलाञ्चित - भुजः
स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥5॥
 
 
पयोराशेस्तीरे स्फुरदुपवनाली - कलनया
मुहुर्वृन्दारण्य - स्मरण - जनित प्रेम विवशः ।
क्वचित् कृष्णावृत्ति - प्रचल- रसनो - भक्ति - रसिकः
स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥6॥
 
 
रथारूढस्यारादधिपदवि नीलाचल - पते -
रदभ्र - प्रेमोर्मि- स्फुरित - नटनोल्लास - विवशः ।
सहर्षं गायद्भिः परिवृत - तनुर्वैष्णव - जनैः
स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥7॥
 
 
भुवं सिञ्चन्नश्रु - स्रुतिभिरभितः सान्द्र- पुलकैः
परीताङ्गो नीप - स्तबक - नव - किञ्जल्क - जयिभिः ।
घन - स्वेद - स्तोम - स्तिमित - तनुरुत्कीर्तन - सुखी
स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥8॥
अधीते गौराङ्ग - स्मरण - पदवी - मङ्गलतरं
कृती यो विश्रम्भ- स्फुरदमलधीरष्टकमिदम् ।
परानन्दे सद्यस्तदमल पदाम्भोज - युगले
परिस्फारा तस्य स्फुरतु नितरां प्रेमलहरी ॥9॥
 
 
(1) श्रीवृन्दावनमें विद्यमान श्रीरूप गोस्वामी, श्रीपुरुषोत्तमक्षेत्रमें विराजमान श्रीचैतन्यमहाप्रभुको "कृष्णवर्णं” इत्यादि भा. ११/५/३२ शास्त्रके द्वारा एवं उन्हीं (श्रीचैतन्यदेव) के अनुग्रहके द्वारा उनको साक्षात् भगवद् रूपसे अनुभवमें लाकर, तत्त्वरूपसे वर्णन करते हुए, उनके दर्शनकी आकांक्षासे, विरहविह्वल होकर कहते हैं कि- वे श्रीचैतन्यमहाप्रभु फिर भी मेरे नेत्रगोचर होंगे क्या ? जो कि मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले एवं अपनेमें प्रेमधारण करनेवाले शिव, ब्रह्मा आदि देवताओंके द्वारा सदैव उपासनीय हैं एवं परमशोभायमान हैं; तथा श्रीस्वरूपदामोदर आदि अपने भक्तोंके लिए अपने भजनकी विशुद्ध मुद्रा ( कर्मयोगादिसे अनावृत अपने भजनकी परिपाटी) का उपदेश देते हुए विराजमान हैं । यदि कहो कि, उनके निकट तो ब्रह्मा आदि देवता सेवा करते हुए नहीं दिखाई देते हैं। इसके उत्तरमें कहते हैं कि, श्रीकृष्णावतारमें तो ब्रह्मादि देवता उनकी साक्षात् रूपसे उपासना करते थे; किन्तु इस अवतारमें तो शंकर, श्री अद्वैताचार्यके रूपसे एवं ब्रह्मा, नामाचार्य श्रीहरिदासके रूपसे उपासना करते हैं। तात्पर्य - “कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् । यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः । । " भा. ११/५/३२ इस श्लोकमें जो चतुर्थ युगावतार वर्णित है, वह श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभुरूप ही है; क्योंकि श्रीहरिनाम संकीर्तनप्रधान यज्ञका असाधारण धर्म, उन्हींमें देखा जाता है। और असाधारण धर्मवाले लक्षणके द्वारा ही लक्ष्यका परिचय होता है। जैसे “जन्माद्यस्य यतः” इस ब्रह्मसूत्रमें जगत् जन्मादिके कारण होनेके नाते, उसका लक्ष्य ब्रह्म परिचित होता है, उसी प्रकार श्रीचैतन्यावतार भी, मनुष्य रूपधारी देवताओंके द्वारा सेवनीय है। बारम्बार प्रकट न होनेवाले इस अवतारको “महान् प्रभुर्वै पुरुषः सत्त्वस्यैष प्रवर्तकः” यह श्रुति भी प्रकाशित करती है। इस प्रकार साक्षात् ईश्वर रूपसे विनिश्चित श्रीचैतन्यदेवमें, यदि किसी मन्दमतिकी आस्था नहीं दिखाई देती है, तो उस मन्दमतिके ऊपर उन ( श्रीचैतन्यदेव) की कृपाका अभाव ही जानना चाहिए; क्योंकि “यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः”, “ तमक्रतुः पश्यति वीतशोकं धातुः प्रसादान्महिमानमीशम्" इत्यादि श्रुतियों तथा “ अथापि ते देव! पदांबुजद्वयप्रसादलेशानुगृहीत एव हि । जानाति तत्त्वं भगवन् महिम्नो न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन् । भा. १०/१४/२६ इत्यादि स्मृतियोंसे, उनकी कृपा ही उनके दर्शनमें हेतु है। यह भाव अन्वय-व्यतिरेकके द्वारा श्रीवासुदेवसार्वभौम भट्टाचार्य आदि महानुभावोंके ऊपर स्पष्ट ही देखा गया है, हाय ! ऐसा मेरा भी सौभाग्यपट कब खुलेगा ? ।
 
 
(2) ये श्रीचैतन्यदेव, श्रीकृष्णके अंशावताररूप चतुर्थ युगके अवतारस्वरूप नहीं हैं; क्योंकि “कृते शुक्लो धर्ममूर्ती रक्तस्त्रेतायुगे मतः । द्वापरे च कलौ चापि श्यामलाङ्गः प्रकीर्तितः ॥" इस स्मृति प्रमाणसे, वह चतुर्थ युगावतार तो श्यामवर्णवाला कहा गया है; किन्तु यह अवतार तो निजप्रेयसी श्रीमती राधिकाके भाव एवं कान्तिके द्वारा, अपनी कान्तिको छिपाकर स्वयं श्रीगौररूपमें ही प्रकट हुआ है । इस भावको प्रदर्शित करते हुए श्रीरूप गोस्वामी दूसरे श्लोकमें कहते हैं कि- वे श्रीचैतन्यमहाप्रभु फिर भी मेरे नेत्रोंके सामने पदार्पण करेंगे क्या ? जो ब्रह्मादि देवताओंके लिए भी "दुर्ग” अर्थात् निर्भयस्थान स्वरूप हैं, एवं उपनिषदोंके लिए भी "अतिशयगति" अर्थात् परमतत्त्व संचारस्वरूप अथवा प्राप्यस्वरूप हैं, एवं जो मुनियोंके दोनों लोकोंके धनस्वरूप हैं, एवं दासभक्तवृन्दोंके दास्यभक्तिके माधुर्यरूप हैं, तथा समस्त व्रजाङ्गनाओंके श्रीकृष्णविषयक प्रेमके “विनिर्यासः” अर्थात् सारस्वरूप हैं ।
 
 
(3) अब तीसरे श्लोकमें श्लेषालंकारके द्वारा साक्षात् कृष्ण रूपसे वर्णन करते हुए कहते हैं कि- वे श्रीचैतन्यमहाप्रभु फिर भी मेरे दृष्टिगोचर होंगे क्या ? जो संसारमें अनुपम एवं स्वरूप, अर्थात् श्रीजीव गोस्वामीके पितृपाद तथा स्वरूपदामोदर नामक अपने प्रियपार्षदको अपनी कृपासुधासे परिपुष्ट करते रहते हैं अद्वैताचार्यके परमप्रिय हैं श्रीवास - नामक पंडित जिनके शरणागत हो गए हैं एवं परमानन्दपुरी - नामक अपने काका- गुरुमें जिनका गुरुभाव है एवं सांसारिक अविद्याका अपहरण करनेके कारण जो 'हरि' कहलाते हैं, तथा जो त्रिविध ताप संतप्त दीनदुःखी जीवोंका उद्धार करनेवाले हैं और जो उत्कलदेशके अधिपति गजपति (प्रतापरुद्र ) - नामक नृपतिके ऊपर कृपामयी धारासे, अभिषेक करनेके लिए चंचल हो रहे हैं। श्लेषपक्षे - "हरिः, अर्थात् सिंह होकर भी गजराजके ऊपर कृपाभिषेक करनेमें चञ्चल हैं" यहाँपर विरोधाभास - अलंकार है । इससे अद्भुत सिंहत्व व्यंजित होता है । कृष्णपक्षमें यह अर्थ है कि, सच्चिदानन्द-विग्रहवाले वे श्रीकृष्ण फिर भी मेरे दृष्टिगोचर होंगे क्या? जो संसारमें "न तस्य प्रतिमास्ति" इत्यादि श्रुतिके अनुसार अपने अतुल स्वरूपको, अर्थात् श्रीविग्रहको धारण करते हुए “ एकोऽपि सन् बहुधा यो विभाति एकं सन्तं बहुधा दृश्यमानम्" इत्यादि श्रुतिके अनुसार अनेक रूपवाले होकर भी, जिनको अपना अद्वितीय श्रीकृष्ण रूप ही प्रिय है, तात्पर्य जो एकताको न त्यागकर, अनेक रूप धारण करनेवाले हैं एवं जो “प्रपन्नायाः पादसेविन्याः श्रियो लक्ष्म्या निवासः समाश्रयः” अर्थात् जो अपनी शरणमें आई हुई, चरणसेविका लक्ष्मीदेवीके निवासस्वरूप हैं एवं “जनितः स्वजन्मना प्रादुर्भावितः परमानन्दगरिमा निःसीमातिशयः सुखराशिर्येन सः” अर्थात् जिन्होंने अपने प्रादुर्भावके द्वारा, असीम अतिशय सुखसमूह प्रकट कर दिया है तथा जो भक्तोंके पापापहारी होनेसे 'हरि' हैं, दीनजनोंका उद्धार करनेवाले हैं तथा गजपति अर्थात् ग्राहसे ग्रस्त, गजेन्द्रके ऊपर कृपामयी दृष्टिकी सृष्टि करनेमें परम उतावले हो रहे हैं। इस श्लोकमें शब्दार्थश्लेषका सम्मेलन है ।
 
 
(4) वे श्रीचैतन्यमहाप्रभु मेरे नेत्रोंके सामने फिर भी पधारेंगे क्या ? जोकि भक्तिके परम मधुर रसोंके आस्वादनजन्य सुखोंसे उन्मत्त रहते हैं, एवं जिनका श्रीविग्रह करोड़ों कामदेवोंसे भी मधुर मनोहर तेजसे परमोज्ज्वल है अर्थात् जो अतिमोहन मूर्तिवाले हैं; एवं जो संन्यासियोंके मुकुटमणि हैं एवं जिनके वस्त्र प्रातः कालीन सूर्यकी किरणोंके समान अरुणवर्णवाले हैं, तथा जो अपने श्रीविग्रहकी कान्तिके द्वारा सुवर्णसमुदायकी अतिशय शोभाका तिरस्कार करते हुए विराजमान हैं | | ४ ॥
 
 
(5) वे श्रीचैतन्यमहाप्रभु मुझे फिर भी दर्शन देंगे क्या ? जिनकी जिह्वा “हरे कृष्ण" इत्यादि महामन्त्रके उच्चस्वरसे उच्चारणके द्वारा नृत्य करती रहती है अथवा जिनकी जिह्वारूपी रङ्गस्थलीपर “हरे कृष्ण” इत्यादि महामन्त्र सर्वोत्तमभावसे नटकी तरह, स्वयं नृत्य करता रहता है जिनका वामहस्त, उच्चारित किए हुए नामोंकी गिनती के लिए की हुई ग्रन्थिश्रेणीसे, सुन्दर कटिसूत्रके द्वारा सुशोभित हैं जिनके दोनों नेत्र कर्णपर्यन्त विशाल हैं एवं जिनकी दोनों भुजाएँ जानुपर्यन्त लंबी हैं ।
 
 
(6) वे श्रीचैतन्यमहाप्रभु फिर भी मेरे दृष्टिगोचर होंगे क्या ? जो कि श्रीजगन्नाथपुरीके निकटवर्ती समुद्रके तीरपर स्फूर्ति पानेवाली उपवनश्रेणीको देखकर, बारंबार वृन्दावनके स्मरणजनित प्रेमके अधीन बने रहते हैं एवं जिनकी जिह्वा किसी स्थानपर, श्रीकृष्णके नामोंकी आवृत्तिसे प्रतिक्षण चलती रहती है; क्योंकि वे प्रेमलक्षणाभक्तिके परमरसिक हैं ।
 
 
(7) वे श्रीचैतन्यमहाप्रभु मेरे नेत्रोंके सामने फिर भी पधारेंगे क्या ? जो कि रथमें विराजमान श्रीजगन्नाथदेवके निकटवर्ती मार्गमें, अतिशय प्रेमकी तरङ्गोंसे स्फूर्ति पानेवाले, नृत्यके उल्लासके अधीन हैं, अर्थात् श्रीजगन्नाथकी यात्रामें रथके सामने प्रेममें विभोर होकर जो नृत्य करते रहते हैं, एवं हर्ष पूर्वक नामसंकीर्तन करनेवाले वैष्णवजनोंके द्वारा जो चारों ओरसे घिरे हुए हैं ।
 
 
(8) वे श्रीचैतन्यमहाप्रभु फिर भी मेरे दृष्टिगोचर होंगे क्या ? जो कि अपने नेत्रोंकी जलधाराओंके द्वारा, भूमिका अभिषेक करते रहते हैं एवं कदम्बके पुष्पगुच्छोंकी केसरको जीतनेवाले, अपने घने रोमांचोंके द्वारा, जिनका श्रीअङ्ग सर्वतोभावसे व्याप्त रहता है एवं जिनका श्रीविग्रह गाढ़े स्वेदसमुदायसे प्रायः गीला बना रहता है एवं जो उत्कीर्तनमें अर्थात् खड़े होकर, भुजा उठाकर, उद्दण्डकीर्तन करनेमें ही सुखी रहते हैं ।
 
 
(9) इस अष्टकके पाठके फलका निर्देश करते हुए श्रीरूप गोस्वामी कहते हैं कि- विश्वाससे शोभायमान विशुद्ध बुद्धिवाला सौभाग्यशाली जो कोई व्यक्ति, श्रीचैतन्यदेवके स्मरणमय मार्गमें अतिशय मंगलदायक, इस “श्रीचैतन्याष्टक” का पाठ करता है, उसके हृदयमें, श्रीचैतन्यमहाप्रभुके परमानन्दमय दोनों चरणारविन्दोंमें, विस्तीर्ण प्रेमकी लहरी विशेष स्फूर्ति पाती रहे ; यह अष्टककारका आशीर्वाद है ।
 
 
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