श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 11: पूर्ण समाज: चातुर्वर्ण  »  श्लोक 18-20
 
 
श्लोक  7.11.18-20 
 
 
ऋतामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा ।
सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्त्या कदाचन ॥ १८ ॥
ऋतमुञ्छशिलं प्रोक्तममृतं यदयाचितम् ।
मृतं तु नित्ययाच्ञा स्यात्प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ॥ १९ ॥
सत्यानृतं च वाणिज्यं श्ववृत्तिर्नीचसेवनम् ।
वर्जयेत्तां सदा विप्रो राजन्यश्च जुगुप्सिताम् ।
सर्ववेदमयो विप्र: सर्वदेवमयो नृप: ॥ २० ॥
 
अनुवाद
 
  आपातकाल में व्यक्ति ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यनृत नामक विभिन्न व्यवसायों को स्वीकार कर सकता है। लेकिन उसे कभी भी कुत्ते द्वारा किए जाने वाले व्यवसाय को स्वीकार नहीं करना चाहिए। खेत से अनाज इकट्ठा करने के व्यवसाय को ऊँचशिल वृत्ति कहते हैं। इसे ही ऋत कहा जाता है। बिना भीख मांगे एकत्र करना अमृत कहलाता है, अनाज की भीख माँगना मृत है, भूमि की जुताई करना प्रमृत है और व्यापार करना सत्यनृत है। लेकिन निम्न पुरुषों की सेवा करना श्ववृत्ति या कुत्ते केसमान वृत्ति कहलाती है। विशेष रूप से ब्राह्मणों और क्षत्रियों को शूद्रों की निम्न और घृणित सेवा में नहीं लगना चाहिए। ब्राह्मणों को सभी वैदिक ज्ञान में पटु होना चाहिए और क्षत्रियों को देवताओं की पूजा से भली भांति परिचित होना चाहिए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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