श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 20: महाराज पृथु के यज्ञस्थल में भगवान् विष्णु का प्राकट्य  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  4.20.24 
 
 
न कामये नाथ तदप्यहं क्‍वचिन्
न यत्र युष्मच्चरणाम्बुजासव: ।
महत्तमान्तर्हृदयान्मुखच्युतो
विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वर: ॥ २४ ॥
 
अनुवाद
 
  हे प्रभु, मैं आपसे तादात्म्य का वरदान नहीं माँगता, क्योंकि इसमें आपके चरण-कमलों के अमृत रस का आनंद नहीं है। मैं तो दस लाख कान प्राप्त करने का वरदान माँगता हूँ, जिससे मैं आपके शुद्ध भक्तों के मुँह से आपके चरण-कमलों की महिमा का गान सुन सकूँ।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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