न कामये नाथ तदप्यहं क्वचिन्
न यत्र युष्मच्चरणाम्बुजासव: ।
महत्तमान्तर्हृदयान्मुखच्युतो
विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वर: ॥ २४ ॥
अनुवाद
हे प्रभु, मैं आपसे तादात्म्य का वरदान नहीं माँगता, क्योंकि इसमें आपके चरण-कमलों के अमृत रस का आनंद नहीं है। मैं तो दस लाख कान प्राप्त करने का वरदान माँगता हूँ, जिससे मैं आपके शुद्ध भक्तों के मुँह से आपके चरण-कमलों की महिमा का गान सुन सकूँ।