वैष्णव भजन  »  श्री राधिकाष्टकम् (1)
 
 
श्रील रूप गोस्वामी       
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दिशि दिशि रचयन्तीं संचरन्नेत्रलक्ष्मी-
विलसित - खुरलीभिः खञ्जरीटस्य खेलाम् ।
हृदयमधुपमल्लीं बल्लवाधीशसूनो-
रखिल - गुण - गभीरां राधिकामर्चयामि॥1॥
 
 
पितुरिह वृषभानोरन्ववाय - प्रशस्तिं
जगति किल समस्ते सुष्ठु विस्तारयन्तीम् ।
व्रजनृपतिकुमारं खेलयन्तीं सखीभिः
सुरभिणि निजकुण्डे राधिकामर्चयामि॥2॥
 
 
शरदुपचित- राका - कौमुदीनाथ - कीर्ति-
प्रकर- दमनदीक्षा- दक्षिण - स्मेरवक्त्राम् ।
नटदघभिदपाङ्गोत्तुङ्गितानङ्ग - रङ्गा
कलित-रुचि-तरङ्गां राधिकामर्चयामि॥3॥
 
 
विविध - कुसुम - वृन्दोत्फुल्ल- धम्मिल्ल-घाटी-
विघटित-मद-घूर्णत् केकि - पिच्छ - प्रशस्तिम् ।
मधुरिपु- मुख - बिम्बोद्गीर्ण- ताम्बूल-राग-
स्फुरदमल - कपोलां राधिकामर्चयामि॥4॥
 
 
अमलिन- ललितान्तः स्नेह-सिक्तान्तरङ्गा-
मखिल - विधविशाखा - सख्य- विख्यात - शीलाम् ।
स्फुरदघभिदनर्घ- प्रेम माणिक्य- पेटीं
धृत मधुर - विनोदां राधिकामर्चयामि॥5॥
 
 
अतुल-महसि वृन्दारण्यराज्येऽभिषिक्तां
निखिल - समय - भर्तुः कार्तिकस्याधिदेवीम् ।
अपरिमित - मुकुन्द - प्रेयसी - वृन्दमुख्यां
जगदघहर - कीर्ति राधिकामर्चयामि॥6॥
 
 
हरिपदनख - कोटी - पृष्ठ - पर्यन्त-सीमा-
तटमपि कलयन्तीं प्राणकोटरेभीष्टम् ।
प्रमुदित - मदिराक्षी - वृन्द- वैदग्ध्य - दीक्षा-
गुरुमति - गुरुकीर्ति राधिकामर्चयामि॥7॥
 
 
अमल- कनक- पट्टोद्धृष्ट- काश्मीर - गौरी
मधुरिम - लहरीभिः संपरीतां किशोरीम् ।
हरिभुज - परिरब्धां लब्ध- रोमाञ्च - पालिं
स्फुरदरुण- दुकूलां राधिकामर्चयामि॥8॥
 
 
तदमल - मधुरिम्णां काममाधाररूपं
परिपठति वरिष्ठं सुष्ठु राधाष्टकं यः ।
अहिम - किरण - पुत्री - कूल - कल्याण - चन्द्रः
स्फुटमखिलमभीष्टं तस्य तुष्टस्तनोति॥9॥
 
 
(1) मैं, उन श्रीमती राधिकाकी पूजा करता हूँ कि, जो प्रत्येक दिशामें विचरण करनेवाले, अपने नेत्रोंकी शोभारूप विलासोंके अभ्यासोंके द्वारा, खञ्जनपक्षीके खेलकी रचना करती रहती हैं, अर्थात् राधिका जिस दिशाकी ओर दृष्टिपात करती हैं, वह दिशा मानो खञ्जनमालासे व्याप्त हो जाती है। तात्पर्य - जिनके दोनों नेत्र खञ्जनके समान हैं एवं जो नन्दनन्दन श्रीकृष्णके हृदयरूपभ्रमरके लिए, मल्लिकाके पुष्पके समान है । भ्रमरके लिए मल्लिका जिस प्रकार आनन्ददायिनी है, उसी प्रकार राधिका श्रीकृष्णके हृदयके लिए आनन्ददायिनी हैं तथा जो समस्त गुणोंके कारण अतिशय गम्भीर हैं॥1 ।
 
 
(2) मैं, उन श्रीमती राधिकाजीकी पूजा करता हूँ जो अपने पिता श्रीवृषभानुजीके वंशकी प्रशंसाको, इस समस्त जगत् में भली प्रकार विस्तारित करती रहती हैं एवं जो पुष्पोंके परागसे सुगन्धित अपने कुण्डमें, ललिता आदि अपनी सखियोंके सहित, व्रजराजकुमार श्रीकृष्णको खेल कराती रहती हैं, अर्थात् सखियों सहित श्रीकृष्णको जलसे सींचती रहती हैं॥2॥
 
 
(3) श्रीराधिकाके अनुपम मुखमण्डलका एवं माधुर्यकी आधारताका वर्णन करते हुए कहते हैं कि- मैं, उन श्रीमती राधिकाकी पूजा करता हूँ जिनका मन्दहास्ययुक्त मुखारविन्द, शरद् ऋतुमें वृद्धिको प्राप्त चन्द्रमाकी कीर्तिके समूहको दमन करनेकी दीक्षामें निपुण है, अर्थात् शरद् ऋतुके पूर्णचन्द्रमासे भी परम मनोहर है एवं श्रीकृष्णके चञ्चल कटाक्षपातसे जिनका अनङ्गरङ्ग परमवृद्धिको प्राप्त हो रहा है तथा जिनके श्रीअङ्गमें शोभाकी तरङ्गे नृत्य करती रहती हैं॥3॥
 
 
(4) मैं, उन श्रीमती राधिकाजीकी पूजा करता हूँ जो अनेक प्रकारके पुष्पोंसे सुशोभित, अपने केशपाशके बलपूर्वक आक्रमणके द्वारा, मदमाते मयूरके पंखोंकी प्रशंसाको तिरस्कृत करनेवाली हैं एवं जिनके निर्मल कपोल, श्रीकृष्णके मुखबिंबसे निकलते हुए तांबूलरसकी लालिमासे स्फूर्ति पा रहे हैं॥4॥
 
 
(5) श्रीराधिका अपनी सखियोंकी एवं अपने नायककी मुख्य प्रेमपात्री हैं, इस भावको वर्णन करते हुए कहते हैं कि- मैं, उन श्रीमती राधिकाजीकी पूजा करता हूँ जिनका अन्तःकरण ललिता सखीके निर्मल आन्तरिक स्नेहसे सिक्त ( सरस ) रहता है एवं जिनका शीलस्वभाव विशाखा सखीकी समस्त प्रकारकी मित्रतासे विख्यात है एवं जो श्रीकृष्णके दमदमाते हुए प्रेमरूपी अमूल्य रत्नोंकी मंजूषास्वरूप हैं तथा जो मधुरविनोदको धारण करती रहती हैं॥5॥
 
 
(6) मैं, उन श्रीमती राधिकाजीकी पूजा करता हूँ जो अतुलनीय प्रभाववाले एवं महोत्सववाले श्रीवृन्दावनके राज्यपदपर अभिषिक्त हैं ( ब्रह्ममोहनलीलामें एक कोनेमें ही करोड़ों ब्रह्माण्डोंके दृष्टिगोचर करा देनेसे एवं वैकुण्ठसे भी अतिशय श्रेष्ठ मथुरामण्डलके भी उत्तमप्रदेश होनेके कारण, वृन्दावनका प्रभाव अतुलनीय है। यह वृन्दावन सर्वदा वसन्तऋतुसे सेवित होनेके कारण एवं आनन्दमय श्रीकृष्णके द्वारा अधिष्ठित होनेके कारण, सर्वदा उत्सवरूप बना रहता है); अतः इस प्रकारके वृन्दावनके प्राज्य - राज्यके आधिपत्यसे, श्रीराधिकाका उत्कर्ष, पराकाष्ठाको प्राप्त कर रहा है ( श्रीराधिकाके राज्याभिषेककी कथा श्रीरूपगोस्वामी - कृत “श्रीदानकेलिकौमुदी" नामक ग्रन्थमें निबद्ध है) एवं जो राधिका, सभी मासोंकी अधिपति कार्तिकमासकी अधिष्ठात्री देवी हैं एवं जो श्रीकृष्णके असंख्य प्रेयसीवृन्दमें मुख्य हैं; अर्थात् जो श्रीकृष्णकी पट्टमहिषी हैं तथा जिनकी कीर्ति, समस्त जगत्के पापोंको हरनेवाली है॥6॥
 
 
(7) श्रीमती राधिकाके लोकोत्तर पतिव्रताधर्मको दिखाते हुए कहते हैं कि- मैं, उन श्रीमती राधिकाकी पूजा करता हूँ जो श्रीकृष्णके पादपद्मोंके सूक्ष्म नखाग्र-भागको, अपने करोड़ों प्राणोंकी अपेक्षा, अधिक प्रियतम जानती हैं, अर्थात् जो कृष्णप्राण हैं एवं उनसे भिन्न कुछ नहीं जानती हैं एवं जो हर्षभरी गोपाङ्गनाश्रेणीको, अनेक प्रकारकी चातुरीकी शिक्षा देनेमें दीक्षागुरु हैं, अतः जिनकी महती कीर्ति विद्यमान है॥7॥
 
 
(8) श्रीराधिकाके माधुर्यका वर्णन करते हुए कहते हैं कि- मैं, उन श्रीमती राधिकाजीकी पूजा करता हूँ जो निर्मल निकष - पाषाणपर पीसे हुए, कुंकुमके समान गौरवर्णवाली हैं एवं जो माधुर्यकी तरङ्गोंसे परिव्याप्त हैं, नित्य किशोरी हैं तथा जो श्रीकृष्णकी भुजाओंसे आलिङ्गित होते ही, पुलकावलीको प्राप्त हो जाती हैं और जिनकी ओढ़नी चमकीले अरुणवर्णवाली है॥8॥
 
 
(9) जो व्यक्ति, श्रीमती राधिकाजीके स्वरूप-गुण- विभूति आदि माधुर्योके यथेष्ट आधारस्वरूप, इस उत्कृष्ट “राधिकाष्टक" का भली प्रकार प्रेमपूर्वक पाठ करता है, उस व्यक्तिके समस्त अभीष्टको, सूर्यपुत्री यमुनाके कमनीय- कूलके कल्याणचन्द्र श्रीकृष्णचन्द्र प्रसन्न होकर, स्पष्ट ही विस्तारित करते रहते हैं । इस अष्टकमें "मालिनी” नामक छन्द है॥9॥
 
 
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