एवं धार्ष्ट्यान्युशति कुरुते मेहनादीनि वास्तौ
स्तेयोपायैर्विरचितकृति: सुप्रतीको यथास्ते ।
इत्थं स्त्रीभि: सभयनयनश्रीमुखालोकिनीभि-
र्व्याख्यातार्था प्रहसितमुखी न ह्युपालब्धुमैच्छत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद
“जब कृष्ण शरारत करते हुए पकड़े जाते हैं, तो घर का मालिक उससे कहता, ‘अरे चोर’ और कृष्ण पर नकली गुस्सा जाहिर करता। इस पर कृष्ण कहते, ‘मैं चोर नहीं हूँ। चोर तुम हो।’ कभी-कभी गुस्से में आकर कृष्ण हमारे साफ-सुथरे घरों में मल-मूत्र त्याग कर देता है। लेकिन हे सखी यशोदा, अब वही चोर तुम्हारे सामने अच्छे बालक की तरह बैठा है।” कभी-कभी सभी गोपियाँ कृष्ण को डरी हुई आंखों से वहां बैठे देखकर सोचती थीं कि माँ डांट-फटकार न करे, और जब वे कृष्ण का सुंदर चेहरा देखतीं तो उसे डांटने की बजाय उसके चेहरे पर ही नजरें टिकाए रखतीं और दिव्य आनंद का अनुभव करतीं। माता यशोदा इन सारी हरकतों पर धीरे-धीरे मुस्कुरा रहीं थीं और उनके मन में अपने भाग्यशाली दिव्य बालक को डांटने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी।