वैष्णव भजन  »  श्री कृष्णनामाष्टकम्
 
 
श्रील रूप गोस्वामी       
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निखिलश्रुतिमौलिरत्नमाला,
द्युतिनीराजितपादपङ्कजान्त ।
अयि मुक्तकुलैरुपास्यमानं,
परितस्त्वां हरिनाम ! संश्रयामि॥1॥
 
 
जय नामधेय ! मुनिवृन्दगेय !,
जनरञ्जनाय परमक्षराकृते॥
 
 
त्वमनादरादपि मनागुदीरितं
निखिलोग्रतापपटलीं विलुम्पसि॥2 ।
यदाभासोऽप्युद्यन्कवलितभवध्वान्तविभवो
दृशं तत्त्वान्धानामपि दिशति भक्तिप्रणयिनीम् ।
जनस्तस्योदात्तं जगति भगवन्नामतरणे !
कृती ते निर्वक्तुं क इह महिमानं प्रभवति ?॥3॥
 
 
यद्ब्रह्मसाक्षात्कृतिनिष्ठयापि,
विनाशमायाति विना न भोगैः ।
अपैति नाम ! स्फुरणेन तत्ते,
प्रारब्धकर्मेति विरौति वेदः ॥4 ॥
 
 
अघदमनयशोदानन्दनौ ! नन्दसूनो !
कमलनयन गोपीचन्द्र वृन्दावनेन्द्राः !
प्रणतकरुण - कृष्णावित्यनेकस्वरूपे
त्वयि मम रतिरुच्चैर्वर्धतां नामधेय॥5॥
 
 
वाच्यं वाचकमित्युदेति भवतो नाम ! स्वरूपद्वयं
पूर्वस्मात् परमेव हन्त करुणं तत्रापि जानीमहे ।
यस्तस्मिन् विहितापराधनिवहः प्राणी समन्ताद्भवे-
दास्येनेदमुपास्य सोऽपि हि सदानन्दाम्बुधौ मज्जति॥6॥
 
 
सूदिताश्रितजनार्तिराशये,
रम्यचिद्घन - सुखस्वरूपिणे ।
नाम ! गोकुलमहोत्सवाय ते,
कृष्ण ! पूर्णवपुषे नमो नमः॥7॥
 
 
नारदवीणोज्जीवन !,
सुधोर्मि- निर्यास- माधुरीपूर ! ।
त्वं कृष्णनाम! कामं,
स्फुर मे रसेन रसेन सदा॥8॥
 
 
(1) हे हरिनाम ! मैं, आपका सर्वतोभावसे आश्रय ग्रहण करता हूँ, क्योंकि आपका महत्त्व विचित्र है । देखो, समस्त श्रुतियोंकी मुकुटमणिरूप उपनिषद्स्वरूप रत्नोंकी मालाकी चमचमाती हुई कान्तिके द्वारा, आपके चरणकमलोंके अन्तभागकी अर्थात् नखोंकी आरती उतारी जाती है और मुक्तमुनिगण भी आपकी उपासना करते रहते हैं । तात्पर्य - सर्वोपनिषदोंके पुरुषार्थरूपसे प्रतिपाद्य एवं मुक्तमुनिकुलसेव्य आप ही हैं। श्रुतिस्मृति प्रमाणं यथा - “ सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति”, “ एतत् साम गायन्नास्ते”, “निवृत्ततर्षैरुपगीयमानात्”, “एतन्निर्विद्यमानानामिच्छतामकुतोभयम्। योगिनां नृप । निर्णीतं ! हरेर्नामानुकीर्तनम्॥” इत्यादि । योगिनां – भगवद्-योगभाजां मुक्तानामित्यर्थः॥1॥
 
 
(2) यदि कहें कि, पापोंसे आक्रान्त तेरे जैसेको अपना आश्रय कैसे दे दूँगा? तब कहते हैं- हे मुनियोंके द्वारा गायन करने योग्य एवं भक्तोंके अनुरञ्जनके लिए ही अक्षरोंकी आकृति धारण करनेवाले हरिनाम ! आपकी जय हो, अर्थात् आपका उत्कर्ष सदैव विद्यमान रहे अथवा अपने उत्कर्षको प्रकट करें। प्रभो ! वह उत्कर्ष यह है कि, आप तो अनादरपूर्वक अर्थात् सांकेत्य परिहासादिके रूपसे, किंचित् उच्चारित होनेपर भी, लिङ्गदेहपर्यन्त समस्त भयङ्कर पापसमूहको समूल नष्ट कर देते हैं । अतः मुझे भी अपनी शरणागति अवश्य प्रदान करेंगे तथा अपने प्रभावका स्मरण करके, मुझको भी पवित्र कर दीजिए; क्योंकि मैं, आपके यशका प्रचारक हूँ, यह भावार्थ है। श्रुतिस्मृति प्रमाणं यथा— ह. भ. वि. 11/5/12 तमु स्तोतारः पूर्व्यं यथाविद त्र तस्य गर्भं जनुषा पिपर्तन । आस्य जानन्तो नाम चिद्विवक्तन महस्ते विष्णो सुमतिं भजामहे॥" भा. 6 / 2 / 14 “सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनमेव वा । वैकुण्ठनामग्रहणमशेषाघहरं विदुः । " ह. भ. वि. 11/393 परिहासोपहासाद्यै- विष्णोर्नाम गृणन्ति ये । कृतार्थास्तेऽपि मनुजास्तेभ्योऽपीह नमो नमः॥" ह. भ. वि. 11/324 प्रमादादपि संस्पृष्टो यथाऽनलकणोदहेत्। तथौष्ठपुटसंस्पृष्टं हरिनाम दहेदघम्॥” “सकल-निगमवल्ली-सत्फलं चित्स्वरूपम् इति स्मरणाच्च चिदात्मकाक्षराकारं नाम । यथा नामिनः कृष्णस्य चिद्रूपस्य हंसशूकरादिवपुश्चिद्रूपमेव तद्वत्"॥2॥
 
 
(3) नामाभास, केवल पापोंको ही जलाकर निवृत्त नहीं होता; अपितु अपने वाच्य श्रीकृष्ण आदि स्वरूपमें भक्तिको भी प्रकाशित करता है, यह कहते हैं- हे भगवन्नामरूप सूर्य ! इस संसारमें, कौन प्रवीण पण्डितजन, आपकी असमोर्ध्व महिमाको, यथार्थरूपेण कहनेमें समर्थ हैं? अर्थात् कोई भी नहीं। क्योंकि आपका आभासमात्र भी प्रकट होकर, संसारमें अज्ञानरूप अन्धकारके वैभवको, कवलित (ग्रास) कर लेता है और तत्त्वदृष्टिसे विहीन व्यक्तियोंके लिए, श्रीहरिभक्ति देनेवाली दृष्टि प्रदान करता है॥3॥
 
 
(4) अब निष्ठापूर्वक जपा हुआ नाम - भागेके द्वारा ही विनाश्य प्रारब्धकर्मको, भोगके बिना ही, नष्ट कर देता है । इस भावको कहते हैं— हे नाम भगवन्! जो प्रारब्धकर्म, भोगोंके बिना, ब्रह्मकी अविच्छिन्न तैलधारावत् की गई साक्षात्कारकी निष्ठाके द्वारा भी, विनष्ट नहीं हो पाता; वह प्रारब्धकर्म, आपके स्फूर्तिमात्रसे अर्थात् भक्तोंकी जिह्वापर स्फुरण होनेमात्रसे दूर भाग जाता है, इस बातको वेद उच्चस्वरसे कहते हैं, अर्थात् ब्रह्मविद्याके साक्षात्कारसे, संचित एवं क्रियमाण कर्मोंका नाश तो हो जाता है; किन्तु फल देनेके लिए प्रवृत्त पुण्य-पापरूप प्रारब्धकर्मका नाश तो भोगसे ही होता है, ब्रह्मविद्यासे नहीं । परन्तु वह प्रारब्धकर्म भी, नामोच्चारणमात्रसे विनष्ट हो जाता है, इसमें वेद प्रमाण हैं । यथा - " स एवा सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदितः, उदेति ह वै सर्वपाप्मभ्यो य एवं वेद उदिति तस्य नाम" वह सब पापोंसे छूट गया और वह जीव ही, सब पापोंसे छुटकारा पाता है, जो भगवान्‌के 'उत्' ऐसे नामको जानता है । “भगवन्नामोपासनया सर्व पापापगमोक्तेः प्रारब्धस्याप्यगमः स्पष्टः । इत्थमभिप्रेत्य शाट्यायनिनः पठन्ति - “ तस्य पुत्रादायमुपयन्ति सुहृदः साधुकृत्यां द्विषन्तः पापकृत्याम् इति कौषीतकिनश्च । तत्सुकृत - दुष्कृते विधुनुते, तस्य प्रिया ज्ञातयः सुकृतमुपन्त्यप्रिया दुष्कृतम् इति । " एवमाह भगवान् सूत्रकारः - “ अतोन्यापि ह्येकेषामुभयोः इति । अस्यार्थः एकेषां नामैकान्तिनां परमानुरागिणां विनैव भोगात् प्रारब्ध्योः सुकृत- दुष्कृतयोरश्लेषो भवतीति स्वीकार्यम् । हि यस्मात्तस्य तावदेव चिरमित्यादिकायाः प्रारब्ध भोगेन नाश्यमिति वदन्त्या श्रुतेरन्या तस्य पुत्रादायमित्यादिका तदर्थिका श्रुतिरस्ति इति"॥4॥
 
 
(5) अब भक्तोंको विचित्र आनन्द देनेके लिए, अनेक रूपसे प्रकट होनेके कारण, ये नाम - भगवान् विशेष दयालु हैं, इस भावसे कहते हैं- “हे नाम भगवन् ! पूर्वोक्त रूपसे अतर्क्य महिमावाले; आपमें मेरी प्रीति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रहे। आपके अनेक स्वरूप इस प्रकारके हैं- “हे अघदमन ! हे यशोदानन्दन! हे नन्दसूनो ! हे कमलनयन ! हे गोपीचन्द्र ! हे वृन्दावनेन्द्र ! हे प्रणतकरुण ! हे कृष्ण ! इत्यादि”॥5॥
 
 
(6) आपकी अतिशय दयालुता प्रसिद्ध है; अतः आपका ही आश्रय लेता हूँ, इस भावसे कहते हैं- हे नाम! आपके वाच्य एवं वाचकरूपसे दो स्वरूप, संसारमें प्रकट होते हैं, अर्थात् 'वाच्य' शब्दसे सच्चिदानन्द-विग्रहवाले परमात्मा लिए जाते हैं और 'वाचक' शब्दसे श्रीकृष्ण, गोविन्द इत्यादि वर्णसमूहरूप नाम कहलाते हैं। इन दोनोंके मध्यमें पहले वाच्यकी अपेक्षा, दूसरे वाचक श्रीकृष्ण आदि नाम - स्वरूपवाले आपको हम अधिक दयालु जानते हैं; क्योंकि जो प्राणी, आपके वाच्य स्वरूपके प्रति अनेक अपराध कर चुका है, वह भी, वाचक - स्वरूप आपकी जिह्वाके स्पर्शमात्रसे, उपासना करके, सदैव आनन्दसमुद्रमें गोता लगाता रहता है । अत्र विषये स्मृति प्रमाणं यथा - ह. भ. वि. 11/375 “मम नामानि लोकेस्मिन् श्रद्धया यस्तु कीर्तयेत् । तस्यापराधकोटीस्तु क्षमाम्येव न संशयः॥नामनामिनोरभेदस्तु - ह. भ. वि. 11/5०3 नाम चिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्यरसविग्रहः । पूर्णः शुद्धो नित्युमुक्तोऽभिन्नत्वानामनामिनोः, इत्यत्र प्रतिपादितः "॥6॥
 
 
(7) बत्तीस प्रकारके सेवापराध तो नामके द्वारा नष्ट हो सकते हैं, पर साधुनिन्दा आदि दश - नामापराध, किससे नष्ट होंगे? इसके उत्तरमें, वे भी नामके द्वारा ही नष्ट होंगे, इस भावसे कहते हैं- “हे आश्रितोंके पीड़ासमूहको नष्ट करनेवाले, रमणीय सच्चिदानन्द स्वरूपवाले, गोकुलके महोत्सवस्वरूप एवं व्यापक स्वरूपवाले हे कृष्णनाम ! पूर्वोक्त गुणविशिष्ट आपके प्रति मेरा बारम्बार नमस्कार है ।" यहाँ पर पीड़ा समूहसे सभी अपराधोंका ग्रहण है, अर्थात् नामापराधीकी नामापराधरूप सब पीड़ाओंको नाम ही नष्ट करता है। अत्र विषये स्मृति प्रमाणं यथा - ह. भ. वि. 11/525-526 “जाते नामापराधे तु प्रमादेन कथंचन । सदा संकीर्तयन् नाम तदेक- शरणो भवेत्॥नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम् । अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि यत्॥अपराधविमुक्तो हि नाम्नि यत्नं समाचरेत्” इति॥7॥
 
 
(8) हे नारदकी वीणाको सचेत करनेवाले! हे अमृतमय तरङ्गोंके सारके समान मधुरताके समूह ! हे कृष्णनाम ! आप मेरी जिह्वापर स्वेच्छापूर्वक रसयुक्त होकर, सदैव स्फूर्ति पाते रहें। इस प्रकारकी प्रार्थना श्रीमद्भागवतके पञ्चम स्कन्धमें भी है। नामकी कृपाके बिना, जिह्वा नाम लेनेमें समर्थ नहीं है, यही तात्पर्यार्थ है। मुख्यतया श्रीकृष्णनाम स्फुरणे प्रार्थना प्रमाणं यथा - ह. भ. वि. 11 / 498 " नाम्नां मुख्यतमं नाम कृष्णाख्यं मे परंतप !” इति॥8॥
 
 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
 
 
 
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