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श्री श्यामकुण्डाष्टकम्  |
अज्ञातकृत |
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वृषभ - दनुज नाशाननतरं यत् स्वगोष्ठी-
मयसि वृषभ - शत्रो मा स्पृश त्वं वदन्त्याम् ।
इति वृषरविपुत्र्यां कृष्णपाष्र्णिं प्रखातं
तदति - विमल - नीरं श्यामकुण्डं गतिर्मे॥1॥ |
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त्रिजगति निवसद् यत् तीर्थंवृन्दं तमोघ्नं
व्रजनृपति- कुमारेणाहृतं तत समग्रम्।
स्वयमिदमवगाढं यन्महिम्नः प्रकाशं
तदति - विमल - नीरं श्यामकुण्डं गतिर्मे ।॥2॥ |
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यदति - विमल नीरे तीर्थरूपे प्रशस्ते
त्तमपि कुरु कृशांगि। स्नानमत्रैव राधे ।
इति विनय वचोभिः प्रार्थनाकृत् स कृष्ण-
स्तदति - विमल - नीरं श्यामकुण्डं गतिर्मे ।॥3॥ |
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वृषभ - दनुज-नाशादुत्य पापं समाप्तं
घुमणि - सख-जयोच्चैर्वर्जयित्वेति तीर्थम् ।
निजमखिल - सखीभिः कुण्डमेव प्रकाश्यं
तदति - विमल - नीरं श्यामकुण्डं गतिर्मे ।॥4॥ |
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यदति सकल - तीर्थैस्त्यक्तवाक्यैः प्रभीतैः
सविनयमभियुक्त कृष्णचन्द्रे निवेद्य ।
अगतिकगति - राधा वर्जनान्नो गतिः का
तदति - विमल - नीरं श्यामकुण्डं गतिर्मे॥5॥ |
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यदति - विकल- तीर्थं कृष्णचन्द्रं प्रसुस्थं
अति - लघु-नति - वाक्यैः सुप्रसन्नेति राधा ।
विविध - चटुल- वाक्यैः प्रार्थनाढ्या भवन्ती
तदति - विमल - नीरं श्यामकुण्डं गतिर्मे॥6॥ |
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यदतिललित-पादैस्तां प्रसाद्याप्ततैयै-
स्तदतिशय - कृपाः संगमेन प्रविष्टैः ।
व्रज नवयुव-राधाकुण्डमेव प्रपन्नं
तदति - विमल - नीरं श्यामकुण्डं गतिर्मे ।॥7॥ |
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यदति - निकट तीरे क्लप्त - कुञ्जं सुरम्यं
सुवल - बटु - मुखेभ्यो राधिकाद्यैः प्रदत्तम।
विविध - कुसुम - वल्ली - कल्पवृक्षादि - राजं
तदति - विमल - नीरं श्यामकुण्डं गतिमं॥8॥ |
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परिपठति सुमेधाः श्यामकुण्डाष्टकं यो
नव - जलधर - रूपे स्वर्णकान्त्यां च रागात् ।
व्रज - नरपति - पुत्रस्तस्य लभ्यः सुशीघ्रं
सह सगण - सखीभी राधया स्यात् सुभज्यः॥9॥ |
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शब्दार्थ |
(1) वृषभासुरके वधके पश्चात्, 'हे वृषभ - शत्रु ! तुम हमारी गोष्ठीमें आ रहे हो, हमें स्पर्श मत करो - श्रीमती राधिकाके द्वारा ऐसा कहने पर श्रीकृष्णने अपनी ऐडीके प्रहारसे जिसको प्रकट किया है, वह अत्यन्त विमल जलसे परिपूर्ण श्रीश्यामकुण्ड ही हमारी गति है॥1॥
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(2) तीनो लोकोंमें पापनाशक जितने भी तीर्थ हैं व्रजेन्दनन्दन श्रीकृष्णने उन सबको बुलाकर जहाँ एकत्र निवास कराया है और ये ही उनकी अत्यन्त प्रगाढ़ महिमाका द्योतक है वे अत्यन्त विमल जलसे परिपूर्ण श्रीश्यामकुण्ड ही हमारी गति हैं॥2॥
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(3) 'हे कृशाङ्गि राधे ! तुम भी इस पवित्र जलसे परिपूर्ण सुन्दर तीर्थरूप इस पावन कुण्डमें स्नान करों - श्रीकृष्ण द्वारा श्रीमती राधिकाको भी जिसमें स्नान करनेके लिए प्रार्थना की गयी है, वही पवित्र जलसे युक्त श्रीश्यामकुण्ड ही हमारी गति हैं॥3॥
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(4) कृष्णकी एड़ीके आघातसे प्रकट होने वाले कुण्ड ( श्यामकुण्ड) में स्नान करनेसे कृष्णके कुण्डमें अवस्थित निखिल तीर्थोंके द्वारा श्रीकृष्णका वृषभासुरके विनाशसे उत्पन्न पापको नष्ट होते देखकर वृषभानुनन्दिनी श्रीमतीराधिकाने अपनी अखिल सखियोंके साथ ठीक वैसे ही एक- दूसरे कुण्डका प्रकाश किया था वही विमल जलसे युक्त श्रीश्यामकुण्ड ही हमारी गति हों॥4॥
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(5) निखिल तीर्थोंको श्रीमती राधिकाजी द्वारा अपने प्रकटित कुण्डमें प्रवेश करनेसे निषेध करने पर उन्होंने ( निखिल तीर्थोंने) अत्यन्त भयभीत होकर विनयपूर्वक श्रीकृष्णचन्द्रके श्रीचरणोंमें- अगतियोंकी एकमात्र गति श्रीमती राधिकाजी हमें त्याग देनेपर हमारी क्या गति होगी ? इस प्रकार जहाँ पर निवेदन किया था, वही अत्यन्त पवित्र जलयुक्त श्रीश्यामकुण्ड ही मेरी गति हैं॥5।
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(6) जहाँ पर तीर्थोंको अतिशय विकल देखकर श्रीकृष्णके द्वारा उनको सेवाधिकार (श्रीकुण्डमें प्रवेशाधिकार) प्रदान करनेके लिए श्रीमती राधिकाके प्रति अनुनय-विनय भरे वचनोंसे भङ्गीपूर्वक प्रार्थना करने पर श्रीमती राधिकाने अतिशय कोमल प्रणतियुक्त वचनोंसे श्रीकृष्णसे ऐसा कहा था कि- 'मैं सुप्रसन्न हूँ वही अतिशय विमल जलयुक्त श्रीश्यामकुण्ड ही मेरी गति हैं॥6॥
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(7) जिस श्यामकुण्डमें प्रविष्ट हुए तीर्थोंने अतिशय मनोज्ञ पद्योंके द्वारा श्रीमती राधिकाको सुप्रसन्न कर तथा श्रीमती राधिकाकी अपने प्रति कृपा लक्ष्यकर द्रवीभूत होकर (जलरूपसे) दोनों कुण्डोंके मध्यवर्ती स्थानको भेदकर ब्रजके नवीन युव- द्वन्द्व ( युगलकिशोर ) के श्रीराधाकुण्डमें आश्रय ग्रहण किया था, वही अतिशय विमल जलसे युक्त श्रीश्यामकुण्ड मेरी एकमात्र गति हैं॥7॥
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(8) जिनके अतिशय निकट तटपर श्रीमती राधिका आदि सखियोंने विविध कुसुमवल्लियों तथा कल्पवृक्षोंसे सुशोभित कुञ्जोंका निर्माणकर सुबल और मधुमङ्गल वटु प्रमुख सखाओंको प्रदान किया था, वह अतिशय विमल जलयुक्त श्रीश्यामकुण्ड ही मेरी गति हैं॥8॥
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(9) जो सुमेधा (बुद्धिमान) व्यक्ति इस श्यामकुण्डाष्टकका प्रीतिपूर्वक पाठ करते हैं, नवजलधरकान्ति युक्त श्रीकृष्ण और स्वर्णकान्ति विशिष्ट श्रीराधिकाके प्रति अनुराग हेतु उनको ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण सखियोंसे परिवेष्टित श्रीमती राधिकाके सहित सहज ही भजनीय होते हैं तथा सुशीघ्र ही प्राप्त होते हैं॥9॥ |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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