वैष्णव भजन  »  श्री गान्धर्वासंप्रार्थनाष्टकम्
 
 
श्रील रूप गोस्वामी       
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वृन्दावने विहरतोरिह केलिकुञ्जे
मत्त - द्विप - प्रवर- कौतुक - विभ्रमेण ।
संदर्शयस्व युवयोर्वदनारविन्द-
द्वन्द्वं विधेहि मयि देवि ! कृपां प्रसीद॥1॥
 
 
हा देवि ! काकुभर - गद्गदयाद्य वाचा
याचे निपत्य भुवि दण्डवदुद्भटार्तिः ।
अस्य प्रसादमबुधस्य जनस्य कृत्वा
गान्धर्विके! निजगणे गणनां विधेहि॥2॥
 
 
श्यामे ! रमारमण - सुन्दरता - वरिष्ठ-
सौन्दर्य - मोहित - समस्त - जगज्जनस्य ।
श्यामस्य वामभुज-बद्धतनुं कदाहं
त्वामिन्दिरा - विरल - रूपभरां भजामि ?॥3॥
 
 
त्वां प्रच्छदेन मुदिरच्छविना पिधाय
मञ्जीर - मुक्त - चरणां च विधाय देवि !
कुजे व्रजेन्द्र-तनयेन विराजमाने
नक्तं कदा प्रमुदितामभिसारयिष्ये ? ॥4॥
 
 
कुञ्जे प्रसून -कुल- कल्पित-केलि-तल्पे
लोक - त्रयाभरणयोश्चाणाम्बुजानि
संविष्टयोर्मधुर-नर्म - विलास - भाजोः ।
संवाहयिष्यति कदा युवयोर्जनोऽयम् ?॥5॥
 
 
त्वत्कुण्ड - रोधसि विलास - परिश्रमेण
स्वेदाम्बु- चुम्बि - वदनाम्बुरुह - श्रियौ वाम् ।
वृन्दावनेश्वरि ! कदा तरुमूलभाजौ
संवीजयामि चमरीचय - चामरेण ?॥6 ।
लीनां निकुञ्जकुहरे भवतीं मुकुन्दे
चित्रैव सूचितवती रुचिराक्षि ! नाहम् ।
भुग्नां ध्रुवं न रचयेति मृषारुषां त्वा-
मग्रे व्रजेन्द्र-तनयस्य कदा नु नेष्ये॥7॥
 
 
वाग्युद्ध-केलि - कुतुके व्रजराज - सुनं
जित्वोन्मदामधिकदर्प - विकासि - जल्पाम् ।
फुल्लाभिरालिभिरनल्पमुदीर्यमाण
स्तोत्रां कदा नु भवतीमवलोकयिष्ये ?॥8॥
 
 
यः कोऽपि सुष्ठु वृषभानु - कुमारिकायाः
संप्रर्थनाष्टकमिदं पठति प्रपन्नः ।
सा प्रेयसा सह समेत्य धृतप्रमोदा
तत्र प्रसाद - लहरीमुररीकरोति॥9॥
 
 
(1) हे देवि राधिके ! तुम दोनों (राधा - कृष्ण) मत्तगजेन्द्रके कौतुकविलासवाटिकारूप, वृन्दावनके क्रीड़ाकुञ्जमें नित्य विहार करते रहते हो, अतः हे गान्धर्विके! तुम मुझपर प्रसन्न हो जाओ एवं कृपा कर तुम दोनोंके युगल मुखारविन्दका दर्शन करा दो॥1॥
 
 
(2) हे देवि गान्धर्विके ! मैं विशिष्ट पीड़ासे युक्त हूँ, अतः आज भूमिपर दण्डके समान गिरकर, कातरतासे भरी हुई, गद्गद वाणीसे प्रार्थना करता हूँ कि, मुझ अज्ञानी जनपर कृपा करके, अपने परिकरोंमें मेरी भी गिनती कर लीजिए॥2॥
 
 
(3) हे श्रीमती श्यामे ! आपका श्रीविग्रह, नारायण भगवान्‌की सुन्दरतासे भी श्रेष्ठ, अपने सौन्दर्यके द्वारा समस्त जगत्जनोंको मोहित करनेवाले श्यामसुन्दरकी बायीं भुजासे निबद्ध है, अर्थात् आप श्रीकृष्णके वामाङ्गमें विराजमान हैं एवं आपके रूपकी समता प्राप्ति लक्ष्मीदेवीके लिए भी दुर्लभ है; मैं तुम्हारी इस प्रकारकी छविका कब भजन किया करूँगा?॥3॥
 
 
(4) हे देवि राधिके ! मैं तुम्हारी सखी बनकर मेघकी सी कान्तिवाली ओढ़नीके द्वारा, तुम्हारे शरीरको ढककर एवं तुम्हारे चरणोंको नूपुरोंसे रहित बनाकर, प्रसन्न हुई तुमको, नन्दनन्दनसे सुशोभित निकुञ्जमें रात्रिमें कब पहुँचाऊँगा, अर्थात् पूर्वोक्त रूपवाली तुम्हारा कब अभिसार कराऊँगा ?॥4 ।
 
 
(5) हे देवि ! निकुञ्जमें पुष्पसमुदायके द्वारा बनायी हुई क्रीड़ामयी शय्यापर शयन करनेवाले एवं मधुर परिहासमय विलासोंका सेवन करनेवाले तथा तीनों लोकोंके आभरणस्वरूप तुम दोनोंके चरणारविन्दोंकी सेवा, यह जन कब कर पायेगा ? अहह ! ऐसा शुभदिन मुझे कब प्रात होगा ?॥5 ।
 
 
(6) हे वृन्दावनेश्वरि ! तुम्हारे कुण्डके तीरपर विलासके परिश्रमसे तुम दोनोंके मुखारविन्दोंकी शोभा, पसीनेकी बूँदोंसे युक्त हो जायगी एवं तुम दोनों जब कल्पवृक्षके नीचे मणिमय सिंहासनपर विराजमान हो जाओगे, तब मैं, रत्नदण्डसे सुशोभित चँवरके द्वारा संजीवन करूँगा अर्थात् तुम दोनोंके ऊपर मैं कब चँवर डुलाऊँगा ?॥6॥
 
 
(7) हे सुन्दरलोचने राधिके ! देखो, तुम जब कौतुकवश निकुञ्जके गुप्तस्थानरूप - बिलमें छिप जाओगी, तब श्रीकृष्णको तुम्हारे छिपनेका पता लग जानेपर तुम्हारे निकट आ जानेपर, तुम मुझसे पूछोगी कि – “हे रूपमंजरी ! श्रीकृष्णको मेरे छिपनेका स्थान तुमने क्यों बतलाया?” तब मैं उत्तर दूँगी कि - "नहीं, नहीं, मैंने नहीं बताया; किन्तु तुम्हारे छिपनेकी सूचना चित्रा सखीने दी है। अतः मेरे ऊपर टेढ़ी भ्रुकुटी न कीजिए।” इस प्रकार मेरे ऊपर मिथ्याकोप करनेवाली तुमको देखकर मैं, श्रीकृष्णके आगे तुम्हारी अनुनय विनय कब करूँगा? ऐसा शुभदिन कब उपस्थित होगा ?॥7॥
 
 
(8) उस समय तुम वाणीके युद्धरूप क्रीडाकौतुकमें, श्रीकृष्णको जीतकर अत्यन्त हर्षित हो जाओगी एवं तुम्हारा वाग्विलास अधिक दर्पको विकसित करनेवाला होगा; तब अपनी स्वामिनीकी विजयसे प्रफुल्लित हुई सखियाँ, तुम्हारी भारी स्तुति करेंगी, ऐसी स्थितिमें मैं तुम्हारा कब दर्शन करूँगा ?॥8॥
 
 
(9) जो व्यक्ति शरणागत होकर, वृषभानुनन्दिनी श्रीराधिकाके इस प्रार्थनाष्टकका श्रद्धापूर्वक पाठ करता है, उस पाठकके निकट प्रसन्न हुई राधिका अपने प्रियतम श्रीकृष्णके सहित उपस्थित होकर, उसके ऊपर अपनी प्रसन्नताकी तरङ्गोंको अङ्गीकार करती हैं। इस अष्टकमें “वसन्ततिलका” नामक छन्द हैं॥9॥
 
 
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