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हरि हे दयाल मोर  |
अज्ञातकृत |
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हरि हे दयाल मोर जय राधा-नाथ।
बारो बारो एइ-बारो लह निज-साथ॥1॥ |
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बहु योनी भ्रमि’ नाथ! लोइनु शरण।
निज-गुणे कृपा कर’ अधम-तारण॥2॥ |
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जगत-कारण तुमि जगत-जीवन।
तोमा छाड़ा केऽनाहि हे राधा-रमण॥3॥ |
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भुवन-मङ्गल तुमि भुवनेर पति।
तुमि उपेक्षिले नाथ, कि होइबे गति॥4॥ |
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भाविया देखिनु एइ जगत-माझारे।
तोमा बिना केह नाहि ए दासे उद्धारे॥5॥ |
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शब्दार्थ |
(1) हे हरि! हे मेरे दयालु ईश्वर! आपकी जय हो? हे राधाजी के स्वामी! मैंने आपसे बार-बार विनयपूर्वक याचना की है, और अब मैं पुनः आपसे विनती करता हूँ कि मुझे अपना बना लो, अपना समझकर मुझे स्वीकार कर लीजिए। |
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(2) हे भगवान्! निराशपूर्ण होकर, बारंबर जन्म लेते हुए, अब मैं शरण लेने के लिए आपके पास आया हूँ। कृपया अपना दयापूर्ण स्वभाव प्रदर्शित कीजिए और इस दुष्ट आत्मा का उद्धार कीजिए। |
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(3) आप इस ब्रह्माण्ड के कारण हो (ब्रह्मांण्ड को उत्पन्न करने वाले), और इसके प्राण-आधार हो। हे राधाजी के प्रेमी, आपके अतिरिक्त, कोई आश्रय नहीं है। |
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(4) आप इस संसार के लिए शुभ मंगल सौभाग्य लाते हो, और साथ ही आप समस्त लोकों के स्वामी हो। हे भगवान्, यदि आप मुझे छोड़कर चले जाओंगे तो मेरा क्या होगा? |
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(5) मैंने समझ लिया है, मैं जान चुकाँ हूँ। अपनी दुखद स्थिति पर विचार या मनन करने के पश्चात्, कि इस संसार में आपके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है जो इस सेवक या दास का उद्धार कर सके। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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