वैष्णव भजन  »  कृष्ण के चरणकमलों में प्रार्थना
 
 
श्रील ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद       
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(टेक) कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ।
ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे॥
 
 
ध्रुव अति बोलि तोमा ताइ।
श्री सिद्धांत सरस्वती शची-सुत प्रिय अति
कृष्ण-सेवाय जाँर तुल नाए।
सेई से महंत-गुरू जगतेर मध्ये उरू
कृष्ण भक्ति देय थाइ-थाइ॥1॥
 
 
ताँर इच्छा बलवान पाश्चात्येते थान थान
होय जाते गौरांगेर नाम।
पृथ्वीते नगरादि आसमुद्र नद नदी
सकलेइ लोय कृष्ण नाम॥2॥
 
 
ताहले आनंद होय तबे होय दिग्विजय
चैतन्येर कृपा अतिशय।
माया दुष्ट जत दुःखी जगते सबाइ सुखी
वैष्णवेर इच्छा पूर्ण हय॥3॥
 
 
से कार्य ये करिबारे, आज्ञा यदि दिलो मोरे
योग्य नाहि अति दीन हीन।
ताइ से तोमार कृपा मागितेछि अनुरूपा
आजि तुमि सबार प्रवीण॥4॥
 
 
तोमार से शक्ति पेले गुरू-सेवाय वस्तु मिले
जीवन सार्थक जदि होय।
सेइ से सेवा पाइले ताहले सुखी हले
तव संग भाग्यते मिलोय॥5॥
 
 
एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे
कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात्।
कृत्वात्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतः
सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम्॥6॥
 
 
तुमि मोर चिर साथी भूलिया मायार लाठी
खाइयाछी जन्म-जन्मान्तरे।
आजि पुनः ए सुयोग यदि हो योगायोग
तबे पारि तुहे मिलिबारे॥7॥
 
 
तोमार मिलने भाइ आबार से सुख पाइ
गोचारणे घुरि दिन भोर।
कत बने छुटाछुटि बने खाए लुटापुटि
सेई दिन कबे हबे मोर॥8॥
 
 
अजि से सुविधान तोमार स्मरण भेलो
बड़ो आशा डाकिलाम ताए।
आमि तोमार नित्य-दास ताइ करि एत आश
तुमि बिना अन्य गति नाइ॥9॥
 
 
शुक्रवार, 10 सितम्बर, 1965 के अटलांटिक महासागर के मध्य, अमेरीका जा रहे जहाज पर बैठे हुए श्रील प्रभुपाद जी ने अपनी डायरी में लिखा, “आज जहाज बड़ी सुगमता से चल रहा है। मुझे आज बेहतर लग रहा है। किन्तु मुझे श्री वृन्दावन तथा मेरे इष्टदेवों- श्री गोविंद, श्री गोपीनाथ और श्री राधा दामोदर - से विरह का अनुभव हो रहा है। मेरी एकमात्र सांत्वना श्रीचैतन्यचरितामृत है, जिसमें मैं चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का अमृत चख रहा हूँ। मैंने चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुगामी श्रीभक्तिसिद्धांत सरस्वती का आदेश कार्यान्वित करने हेतु ही भारत-भूमि को छोड़ा है। कोई योग्यता न होते हुए भी मैंने अपने गुरूदेव का आदेश निर्वाह करने हेतु यह खतरा मोल लिया है। वृंदावन से इतनी दूर मैं उन्हीं की कृपा पर पूर्णाश्रित हूँ। ” तीन दिन पश्चात, (13 सितम्बर, 1965) शुद्ध भक्ति के इस भाव में, श्रील प्रभुपाद ने निम्नलिखित प्रार्थना की रचना की।
 
 
हे भाइयों, मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूँ कि तुम्हें भगवान्‌ श्रीकृष्ण से पुण्यलाभ की प्राप्ति तभी होगी जब श्रीमती राधारानी तुमसे प्रसन्न हो जायेंगी।
 
 
(1) शचिपुत्र (चैतन्य महाप्रभु) के अतिप्रिय श्रीश्रीमद्‌ भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर की कृष्ण-सेवा अतुलनीय है। वे ऐसे महान सदगुरु हैं जो सारे विश्वभर के विभिन्न स्थानों में कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ भक्ति बाँटते हैं।
 
 
(2) उनकी बलवती इच्छा से भगवान्‌ गौरांग का नाम पाश्चात्य जगत के समस्त देशों में फैलेगा। पृथ्वी के समस्त नगरों व गाँवों में, समुद्रों, नदियों आदि सभी में रहनेवाले जीव कृष्ण का नाम लेंगे।
 
 
(3) जब श्रीचैतन्य महाप्रभु की अतिशय कृपा सभी दिशाओं में दिग्विजय कर लेगी, तो निश्चित रूप से पृथ्वी पर आनंद की बाढ़ आ जायेगी। जब सब पापी, दुष्ट जीवात्माऐं सुखी होंगी, तो वैष्णवों की इच्छा पूर्ण हो जायेगी।
 
 
(4) यद्यपि मेरे गुरू महाराज ने मुझे इस अभियान को पूरा करने की आज्ञा दी है, तथापि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। मैं तो अति दीन व हीन हूँ। अतएव, हे नाथ, अब मैं तुम्हारी कृपा की भिक्षा मांगता हूँ जिससे मैं योग्य बन सकूँ, क्योंकि तुम तो सभी में सर्वाधिक प्रवीण हो।
 
 
(5) यदि तुम शक्ति प्रदान करो, तो गुरू की सेवा द्वारा परमसत्य की प्राप्ति होती है और जीवन सार्थक हो जाता है। यदि वह सेवा मिल जाये तो वयक्ति सुखी हो जाता है और सौभाग्य से उसे तुम्हारा संग मिल जाता है।
 
 
(6) हे भगवान्‌ मैं एक-एक करके भौतिक इच्छाओं की संगति में आने से सामान्य लोगों का अनुगमन करते हुए सर्पो के अन्धे कुँए में गिरता जा रहा था। किन्तु आपके दास नारद मुनि ने कृपा करके मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और मुझे यह शिक्षा दी कि इस दिवय पद को किस प्रकार प्राप्त किया जाय। अतएव मेरा पहला कर्त्तवय है कि मैं उनकी सेवा करूँ। भला मैं उनकी यह सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ? (प्रह्लाद महाराज ने नृसिंह भगवान से कहा, श्रीमद्‌भागवत 07.09.28)
 
 
(7) हे भगवान्‌ कृष्ण, तुम मेरे चिर साथी हो। तुम्हें भुलाकर मैंने जन्म-जन्मांतर माया की लाठियाँ खायी हैं। यदि आज तुमसे पुर्नमिलन अवश्य होगा तभी मैं आपकी संगती में आ सकूँगा।
 
 
(8) हे भाई, तुमसे मिलकर मुझे फिर से महान सुख का अनुभव होगा। भोर बेला में मैं गोचारण हेतु निकलूँगा। व्रज के वनों में भागता-खेलता हुआ, मैं आध्यात्मिक हर्षोन्माद में भूमि पर लोटूँगा। अहा! मेरे लिए वह दिन कब आयेगा?
 
 
(9) आज मुझे तुम्हारा स्मरण बड़ी भली प्रकार से हुआ। मैंने तुम्हें बड़ी आशा से पुकारा था। मैं तुम्हारा नित्यदास हूँ और इसलिए तुम्हारे संग की इतनी आशा करता हूँ। हे कृष्ण तुम्हारे बिना मेरी कोई अन्य गति नहीं है।
 
 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
 
 
 
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