वैष्णव भजन  »  मार्किने भागवत धर्म (अमरीका में भागवत धर्म का प्रचार)
 
 
श्रील ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद       
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बड़ो कृपा कोइले कृष्ण अधमेर प्रति।
कि लागियानिले हेथा करो एबे गति॥1॥
 
 
आछे किछु कार्य तब एइ अनुमाने।
नाहे केनो आनिबेन एइ उग्र-स्थाने॥2॥
 
 
रजस तमो गुणे ऐरा सबा आच्छन्न।
वासुदेव-कथा रूचि नहे से प्रसन्न॥3॥
 
 
तबे यदि तव कृपा होए अहैतुकी।
सकल-इ-संभव होय तुमि से कौतुकी॥4॥
 
 
कि भावे बुझाले तारा बुझे सेई रस।
एत कृपा करो प्रभु करि निज-वश॥5॥
 
 
तोमार इच्छाय सब होए माया-वश।
तोमार इच्छाय नाश मायार परश॥6॥
 
 
तब इच्छा होए यदि तादेर उद्धार।
बुझिबे निश्चय तबे कथा से तोमार॥7॥
 
 
भागवतेर कथा से तव अवतार।
धीर हइया शुने यदि काने बार-बार॥8॥
 
 
शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः।
हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम्॥
 
 
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया।
भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी॥
 
 
तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादय श्च ये।
चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति॥
 
 
एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः।
भगवत्तत्वविज्ञानं मुक्तसङ्गस्य जायते॥
 
 
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनी श्वरे॥
 
 
रजस तमो हते तबे पाइबे निस्तार।
हृदयेर अभद्र सब घुचिबे ताँहार॥9॥
 
 
कि कोरे बुझाबो कथा वर सेइ चाहि।
क्षुद्र आमि दीन हीन कोनो शक्ति नाहि॥10॥
 
 
अथच एनेछो प्रभु कथा बोलिबारे।
जे तोमार इच्छा प्रभु कोरो एइ बारे॥11॥
 
 
अखिल जगत-गुरू! वचन से आमार।
अलंकृत कोरिबार क्षमता तोमार॥12॥
 
 
तब कृपा हले मोर कथा शुद्ध हबे।
शुनिया सबार शोक दुःख जे घुचिबे॥13॥
 
 
आनियाछो जदि प्रभु आमारे नाचाते।
नाचाओ नाचाओ प्रभु नाचाओ से-मते
काष्ठेर पुत्तलि यथा नाचाओ से मते॥14॥
 
 
भक्ति नाइ वेद नाइ नामे खूब धरो।
‘भक्तिवेदांत’ नाम एबे सार्थक कोरो॥15॥
 
 
17 सितम्बर, 1965 में कृष्णकृपाश्रीमूर्ति ए0सी0 भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ‘जलदूत’ जहाज पर सवार होकर बोस्टन पहूँचे। श्रीचैतन्य की शिक्षाओं का भारत की सीमाओं से बाहर विश्वभर में विस्तार करने का अपने गुरू द्वारा प्रदत्त आदेश को वे अपने हृदय मे धारण किए हुए थे। जब उन्होंने बोस्टन की धूमिल व गंदी अम्बर-रेखा को देखा, तो उन्हें अपने पुण्य अभियान की कठिनाई का भान हुआ और उन्हे इन भगवद-विहीन लोगों पर अपार करूणा का अनुभव हुआ। अतएव, सभी पतितात्माओं के उद्धार की प्रार्थना करते हुए उन्होंने पूर्ण विनम्रतापूर्वक बंगला भाषा में निम्नलिखित ऐतिहासिक स्तोत्र की रचना की।
 
 
(1) मेरे प्रिय भगवान्‌ कृष्ण, आप इस अधम जीव पर बड़े कृपालु हैं, किन्तु मैं नहीं जानता आप मुझे यहाँ क्यों लाये हैं। अब आप मेरे साथ जो चाहें सो करें।
 
 
(2) किन्तु मेरा अनुमान है कि आपका यहाँ कुछ कार्य है, वरना आप मुझे ऐसे उग्र-स्थान पर भला क्यों लाते?
 
 
(3) यहाँ की अधिकांश जनता रजस व तमस के भौतिक गुणों द्वारा प्रच्छन्न है। भौतिक जीवन में मग्न होकर, वे अपने आपको बहुत खुश व संतुष्ट समझते हैं, और इसलिए उनको वासुदेव की दिवय कथाओं में कोई रूचि नहीं है। मैं नहीं जानता वे किस प्रकार इसे समझ पायेंगे।
 
 
(4) किन्तु मैं जानता हूँ कि तुम्हारी अहैतुकी कृपा सब कुछ संभव कर सकती है, क्योंकि तुम सबसे निपुण कौतुकी हो।
 
 
(5) वे भक्तिमय सेवा के भावों को कैसे समझेंगे? हे प्रभु, मैं तो बस आपकी कृपा की प्रार्थना करता हूँ जिससे मैं उन्हें आपके संदेश के प्रति आश्वस्त कर सकूँ।
 
 
(6) सब जीव तुम्हारी इच्छा से माया के वश हुए हैं, और इसलिए, यदि तुम चाहो तो तुम्हारी इच्छा से ही वे माया के चंगुल से छुट भी सकते हैं।
 
 
(7) यदि उनके उद्धार हेतु तुम्हारी इच्छा होगी, तभी वे तुम्हारी कथा समझने में समर्थ होंगे। म्बर
 
 
(8) श्रीमद्‌भागवत की कथा तुम्हारा अवतार है, और यदि कोई धीर वयक्ति विनम्रतापूर्वक उसका बारम्बर श्रवण करे, तो इसे समझ सकता है।
 
 
वैदिक साहित्य से श्रीकृष्ण के विषय में सुनना या भगवद्‌गीता से साक्षात उन्हीं से सुनना अपने आप में पुण्यकर्म है। और जो प्रत्येक हृदय में वास करनेवाले भगवान्‌ कृष्ण के विषय में सुनता है, उसके लिए वे शुभेच्छु मित्र की भांति कार्य करते हैं और जो भक्त निरन्तर उनका श्रवण करता है, उसे वे शुद्ध कर देते हैं। इस प्रकार भक्त अपने सुप्त दिवयज्ञान को फिर से पा लेते है। ज्यों-ज्यों वाह भागवत तथा भक्तों से कृष्ण के विषय में अधिकाधिक सुनता है, त्यों-त्यों वह भगवद्‌भक्ति में स्थिर होता जाता है। भक्ति के विकसित होने पर वह रजो तथा तमो गुणों से मुक्त हो जाता है और इस प्रकार भौतिक काम तथा लोभ कम हो जाता है। जब ये कल्मष दूर हो जाते हैं तो भक्त सतोगुण में स्थिर हो जाता है, भक्ति के द्वारा स्फूर्ति प्राप्त करता है और भगवद्‌ तत्व को पूरी तरह जान लेता है। भक्तियोग भौतिक मोह की कठिन ग्रंथि को भेदता है और भक्त को असंशयं समग्रम्‌ अर्थात्‌ परम सत्य को समझने की अवस्था को प्राप्त कराता है (भागवत्‌ 1.2.17-21)
 
 
(9) वह वयक्ति रजस व तमस गुणों के प्रभाव से निस्तार पा लेगा और उसके हृदय के सभी अभद्र हट जायेंगे।
 
 
(10) मैं उन्हें कृष्णभावना का संदेश आखिर कैसे समझाऊंगा? मैं बहुत आभागा, अयोग्य तथा पतित हूँ। तभी तो मैं आपसे वरदान चाहता हूँ जिससे कि मैं उन्हें आश्वस्त कर सकूँ, क्योंकि मैं अपने बलबूते पर ऐसा करने में असमर्थ हूँ।
 
 
(11) फिर भी, हे प्रभु, आप मुझे यहाँ अपनी कृपा बोलवाने लाये हो। अब यह आप पर निर्भर है कि आप मुझे अपनी इच्छानुसार सफल या असफल बनाओ।
 
 
(12) हे अखिल जगत के गुरू! मैं तो केवल आपके वचन दोहरा सकता हूँ, इसलिए यदि आप चाहो तो मेरे वचनों को उनके समझ के अनुकूल बना दो।
 
 
(13) केवल आपकी अहैतुकी कृपा से ही मेरे वचन शुद्ध होंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि जब यह दिवय संदेश उनके हृदयों में जायेगा तो उनका सब शोक व दुःख दूर हो जायेगा।
 
 
(14) हे प्रभु, मैं तो बस आपके हाथों की कठपुतली हूँ। इसलिए यदि तुम मुझे यहाँ नचाने लाये हो, तो मुझे नचाओ, मुझे नचाओ, हे प्रभु मुझे अपनी इच्छापूर्वक नचाओ।
 
 
(15) मुझमें न तो भक्ति और न ही ज्ञान है, परन्तु मुझे कृष्ण के पवित्र नाम में दृढ़ विश्वास है। मुझे ‘भक्तिवेदांत’ की उपाधि दी गई है, इसलिए यदि आप चाहो तो मेरा यह नाम सार्थक कर दो।
 
 
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