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हरि हरि कबे मोर ह’बे हेन दिन  |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर |
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हरि – हरि कबे मोर ह’बे हेन दिन
विमल वैष्णवे, रति उपजिबे,
वासना हइबे क्षीण॥1॥ |
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अन्तर – बाहिरे, सम व्यवहार,
अमानि मानद ह’ब
कृष्ण – संकिर्तने, श्रीकृष्ण – स्मरणे,
सतत मजिय र’ब॥2॥ |
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ए देहेर क्रिया, अभ्यासे करिब,
जीवन यापन लागि
श्रीकृष्ण भजने, अनुकूल याहा,
ताहे ह’ब अनुरागी॥3॥ |
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भजनेर याहा, प्रतिकूल ताहा,
दृढभावे तेयागिबो
भजिते – भजिते, समय आसिले,
ए देह छाडिया दिब॥4॥ |
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भक्तिविनोद, एइ अश करि’,
वसिया गोद्रुमवने
प्रभु – कृपा लागि’, व्याकुल अन्तरे,
सदा काँदे संगोपने॥5॥ |
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शब्दार्थ |
(1) हे हरि! मेरा ऐसा दिन कब आएगा, जब मेरे हृदय से समस्त प्रकार की विषय वासनाएँ नष्ट हो जाएँगी तथा विमल (शुद्ध) वैष्णवों के श्रीचरण कमलों में मेरी रति उत्पन्न हो जाएगी। |
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(2) अन्दर तथा बाहर में मेरा व्यवहार एक समान होगा अर्थात् मेरा हृदय निष्कपट हो जाएगा तथा मैं अमानी (अपना सम्मान न चाहकर) एवं मानद (दूसरों को सम्मान प्रदान करूँगा) होऊँगा तथा निरन्तर श्रीकृष्ण के कीर्तन स्मरण में निमग्न रहूँगा। |
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(3) केवल मात्र जीवन निर्वाह के उपयुक्त शारीरिक क्रियाओं को करूँगा तथा श्रीकृष्ण भजन के अनुकूल विषयों में मेरी प्रीति होगी। |
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(4) मैं भजन के प्रतिकूल विषयों का दृढ़तापूर्वक परित्याग करूँगा। इस प्रकार भजन करते-करते समय आने पर मैं इस शरीर को त्याग दूँगा। |
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(5) भक्तिविनोद इसी आशा के साथ गोद्रुम वन में बैठकर सर्वदा प्रभु की कृपा के लिए व्याकुल हृदय से एकान्तमें निरन्तर रोता रहता है। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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