वैष्णव भजन  »  ओरे मन, भाल नाहि लागे
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर       
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ओरे मन, भाल नाहि लागे ए संसार।
जनम-मरण-जरा, ये संसारे आछे भरा,
ताहे किबा आछे बल’सार॥1॥
 
 
धन-जन-परिवार, केइ नहे कभु कार,
काले मित्र, अकाले अपर।
याहा राखिबारे चाइ, ताहा नाहि थाके भाइ,
अनित्य समस्त विनश्वर॥2॥
 
 
आयु अति अल्पदिन, क्रमे ताहा हय क्षीण,
शमनेर निकट दर्शन।
रोग-शोक अनिवार, चित्त करे’ छारखार,
बान्धव-वियोग दुर्घटन॥3॥
 
 
भाल करे देख भाइ, अमिश्र आनन्द नाइ,
जे आछे, से दुःखेर कारण।
से सुखेर तरे तबे, केन माया दास हबे
हाराइबे परमार्थ-धन॥4॥
 
 
इतिहास-आलोचने, भावे’देख निज मने,
कत आसुरिक दुराशय।
इंद्रियतर्पण सार, करि कत दुराचार,
शेषे लभे मरण निश्चय॥5॥
 
 
मरण-समय तारा, उपाय हैया हारा,
अनुताप-अनले ज्वलिल।
कुक्कुरादि पशुप्राय, जीवन काटाय हाय,
परमार्थ कभु ना चिन्तिल॥6॥
 
 
ए मन विषये मन, केन थाक अचेतन,
छाड़ छाड़ विषयेर आशा।
श्रीगुरु-चरणाश्रय, कर सबे भव जय,
ए-दासेर सेइ त’भरसा॥7॥
 
 
(1) हे मन! मुझे यह भौतिक जगत्‌ रुचिकर नहीं लग रहा है, क्योंकि यह जन्म, मृत्यु तथा वृद्धावस्था से परिपूर्ण है। मुझे बताओ कि इसके अतिरिक्त भौतिक जीवन का और क्या सार है?
 
 
(2) धन, अनुयायी, तथा पारिवारिक सदस्य वास्तव में इनमें से मेरा कुछ भी नहीं है। जब इन्हें मेरी आवश्यकता होती है तो ये मित्रवत-वयवहार करते हैं तथा अनावश्यकता के समय ये मुझसे अपरिचितों के समान वयवहार करते हैं।
 
 
(3) मेरी जीवन अवधि अत्यन्त अल्प है तथा यह शनैः-शनैः, क्षीण होती जा रही है। दिन-प्रतिदिन, मैं मृत्यु के निकट जा रहा हूँ। रोग तथा शोक जो कि इस भौतिक जगत्‌ के अनिवार्य अंग हैं, मेरे हृदय को उदास कर रहे हैं। अन्त में मैं अपने सम्बन्धियों से वियोग का दुःखद्‌ क्षण भी अनुभव करूँगा।
 
 
(4) हे भाई! कृपया इस पर सावधानीपूर्वक विचार कीजिए। इस भौतिक जगत्‌ में किंचित्‌ भी सुख नहीं है। इस समय जो भी सुख है, वह बाद में दुःखों का कारण बन जाएगा। तब क्यों, ऐसे सुख के लिए माया के दास बनकर आपने आध्यात्मिक जीवन की संपत्ति को त्यागा?
 
 
(5) ऐतिहासिक घटनाक्रम पर चर्चाओं के द्वारा, आपको भली-भाँति ज्ञात है कि पूर्वकाल में अनेक दुराशय असुर रहे हैं जिनका जीवन लक्ष्य केवल अपनी इन्द्रियातृप्ति करना था। वे अनेक पापपूर्ण कार्यकलापों में रत रहकर अन्ततः मृत्यु को प्राप्त हुए।
 
 
(6) मृत्यु के समय, ये असुर अपनी इन्द्रियतृप्ति की समस्त क्षमताओं को खो बैठे, तथा इस प्रकार वे पश्चत्ताप की अग्नि में जल गए। उन्होंने अपना जीवन पशुओं, कुत्तों तथा सुअरों समान वयतीत कर दिया तथा कभी भी आध्यात्मिक जीवन की चिन्ता नहीं की।
 
 
(7) हे मन! तुम जड़-वस्तुओं में इतने अधिक निमग्न क्यों हो? कृपया भौतिक भोग की अभिलाषाओं को त्याग दो। आध्यात्मिक गुरु के चरण कमलों का आश्रय स्वीकार करो, जिससे कि तुम इस भौतिक जगत्‌ पर विजय प्राप्त कर सकोगे। इस दास की एकमात्र यही आशा है।
 
 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
 
 
 
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