वैष्णव भजन  »  मन तुमि तीर्थे सदा
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर       
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मन, तुमि तीर्थे सदा रत।
अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कान्ची, अवन्तिया,
द्वारावती, आर आछे यत॥1॥
 
 
तुमि चाह भ्रमि बारे, ए-सकल बारे बारे,
मुक्तिलाभ करिबार तरे।
से सकल तव भ्रम, निरर्थक परिश्रम,
चित्त स्थिर तीर्थे नाहि करे॥2॥
 
 
तीर्थफल साधुसंग, साधुसंग अन्तरंग,
श्रीकृष्ण भजन मनोहर।
यथा साधु, तथा तीर्थ, स्थिर करि’निज चित्त,
साधुसंग कर निरन्तर॥3॥
 
 
ये तीर्थे वैष्णव नाइ, से तीर्थेते नाहि याइ,
कि लाभ हाँटिया दूर देश।
यथाय़ वैष्णवगण, सेइ स्थान वृंदावन,
सेइ स्थाने आनंद अशेष॥4॥
 
 
कृष्ण भक्ति येइ स्थाने, मुक्ति दासी सेइ खाने,
सलिल तथाय मन्दाकिनी।
गिरी तथा गोवर्धन, भूमि तथा वृंदावन,
आविर्भूता आपनि ह्लादिनी॥5॥
 
 
विनोद कहिछे भाइ, भ्रमिया कि फल पाइ,
वैष्णव-सेवन मोर व्रत॥6॥
 
 
(1) हे मन! तुम सदा अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी (वाराणसी), कांचीपुरम, उज्जैन, द्वारका जैसे तीर्थ स्थलों की यात्रा करने के लिए उत्साहित हो।
 
 
(2) तुम इन स्थानों का पुनःपुनः भ्रमण, दर्शन, मुक्तिलाभ की आशा से करना चाहते हो। तीर्थ स्थानों का इस प्रकार से भ्रमण केवल भ्रम है तथा यथार्थ रूप से, यह एक प्रकार का निरर्थक परिश्रम है। वास्तविकता यह है कि तीर्थ स्थानों का भ्रमण करने मात्र से मन स्थिर नहीं हो सकता।
 
 
(3) तीर्थयात्रा का वास्तविक लाभ वहाँ निवास करने वाले उन्नत भक्तों का संग करने तथा उनके मार्गदर्शन में सर्वाधिक मनोहर श्रीकृष्ण की आराधना करने में है। जहाँ भी भगवद्‌भक्त वास करते हैं, वह स्थान ही तीर्थस्थल है। अतएव, हे मन! निरंतर भक्तों के संग द्वारा तुम्हें स्थिर होना चाहिए।
 
 
(4) मैं उन तीर्थस्थलों का दर्शन नहीं करना चाहता जहाँ वैष्णवों का वास न हो। दूरस्थ स्थानों तक पदयात्रा करने का क्या लाभ? जहाँ भी वैष्णव वास करें, वह स्थान ही वृन्दावन है, अतएव वयक्ति ऐसे स्थान पर असीमित आनन्द की अनुभूति कर सकता है।
 
 
(5) वह स्थान जहाँ कृष्ण-भक्ति का अभ्यास होता है, मुक्ति वहाँ दासी की भाँति निवास करती है, तथा वहाँ का जल गंगा-जल से अभिन्न होता है। पर्वत गोवर्धन पर्वत से अभिन्न होता है। भूमि श्री वृन्दावन से अभिन्न होती है तथा भगवान्‌ की ह्लादिनी शक्ति (आनन्द प्रदायिनी शक्ति) निजी रूप से प्रकट होती है।
 
 
(6) श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं, “हे भाई, तीर्थस्थलों का भ्रमण करने का क्या लाभ! मेरा एकमात्र व्रत तो वैष्णव सेवा है। ”
 
 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
 
 
 
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