वैष्णव भजन  »  आर केन मायाजाले
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर       
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आर केन मायाजाले पड़ितेछ जीव-मीन।
नाहि जान बद्ध हये रबे तुमि चीर-दिन॥1॥
 
 
अति तुच्छ भोग-आशे, बन्धि हये माया-पाशे।
रहिले विकृत-भावे दण्डे यथा पराधिन॥2॥
 
 
एखनओ भकति-बले, कृष्ण-प्रेम-सिन्धु-जले।
क्रिडा करि अनायासे थाक तुमि कृष्णाधिन॥3॥
 
 
(1) हे मछली के समान जीवो! तुम मोह-माया के जाल में क्यों फँसे हुए हो? तुम नहीं जानते, तुम यह अनुभूति नहीं कर रहे हो कि इस प्रकार से तुम सदा के लिए बद्ध हो जाओगे, भौतिक बंधन के चंगुल में हमेशा के लिए बँध जाओगे।
 
 
(2) अत्यन्त तुच्छ, महत्वहीन इन्द्रियतृप्ति को भोगने की आकांक्षा से, माया की रस्सियों द्वारा बाँध दिये गए हो। अतः दंड के रूप में तुम विकृत, प्रतिकूल स्थिति में गिर गए हो और पूरी तरह से पराधीन हो गए हो।
 
 
(3) अब, भक्ति के बल पर, कृष्ण प्रेम रूपी सागर के जल में मुक्तरूप से सरलता से क्रीड़ा करते, आनन्द उठाते हुए, बिना किसी चिंता या उत्कंठा के केवल कृष्ण के अधीन होकर, कृष्ण के आश्रय में रहो।
 
 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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