वैष्णव भजन  »  कबे हबे बोलो
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर       
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कबे ह’बे बोलो से-दिन आमार!
(आमार) अपराध घुचि’, शुद्ध नामे रुचि,
कृपा-बले ह’बे हृदये संचार॥1॥
 
 
तृणाधिक हीन, कबे निज मानि’,
सहिष्णुता-गुण हृदयेते आनि’
सकले मानद, आपनि अमानि,
ह’ये आस्वादिब नाम-रस-सार॥2॥
 
 
धन जन आर, कविता-सुन्दरी,
बलिब ना चाहि देह-सुख-करी
जन्मे-जन्मे दाओ, ओहे गौरहरि!
अहैतुकी भक्ति चरणे तोमार॥3॥
 
 
(कबे) करिते श्री-कृष्ण-नाम उच्चारण,
पुलकित देह गद्‌गद वचन
वैवर्ण्य-वेपथु ह’बे संघटन,
निरन्तर नेत्रे ब’बे अश्रुधार॥4॥
 
 
कबे नवद्वीपे, सुरधुनी-तटे,
गौर-नित्यानंद बलि निष्कपटे
नाचिया गाइया, बेड़ाइब छुटे,
बातुलेर प्राय छाड़िया विचार॥5॥
 
 
कबे नित्यानन्द, मोरे करि’ दया,
छाड़ाइबे मोर विषयेर माया
दिया मोरे निज-चरणेर छाया,
नामेर हाटेते दिबे अधिकार॥6॥
 
 
किनिब, लुटिब, हरि-नाम-रस,
नाम-रसे मति’ हइब विवश
रसेर रसिक-चरण परश,
करिया मजिब रसे अनिबार॥7॥
 
 
कबे जीवे दोया, होइबे उदय,
निज-सुख भुलि’ सुदिन-हृदय
भकतिविनोद, करिया विनय,
श्री-आज्ञा-टहल करिबे प्रचार॥8॥
 
 
(1) हे भगवान्‌! कृपया मुझे बताएँ कि वह दिन कब आएगा जब मैं नाम-अपराध से मुक्त हो जाऊँगा कब आपकी कृपा से मैं भगवान्‌ के पवित्र नाम जप का रसास्वादन करने में समर्थ बन पाऊँगा?
 
 
(2) कब मैं अपने को घास के तिनके से भी अधिक हीन समझूँगा? कब सहनशीलता का गुण मेरे हृदय में प्रकट होगा? कब मैं सबको सम्मान देता हुआ, अपने सम्मान की किञ्चित्‌ भी आशा नहीं करूँगा? इस प्रकार से कब मैं आपके पवित्र नाम में निहित अमृत का आस्वादन करूँगा?
 
 
(3) मुझे धन-संपत्ति, अनुयायी, सम्मान तथा सुन्दर स्त्रियों का संग नहीं चाहिए। इन वस्तुओं से देह को सुख प्राप्त होता है। हे गौरहरि! कृपया आप मुझे जन्म-जन्मांतर अपने चरणकमलों की अहैतुकी भक्ति प्रदान कीजिए।
 
 
(4) अहो! कब, कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण करते ही मेरा शरीर पुलकित हो उठेगा? कब कीर्तन करते समय मेरी वाणी(कण्ठ) अवरूद्ध हो जाएगी और शरीर पीतवर्णी हो जाएगा? मैं कब मूर्च्छित होऊँगा तथा कब मेरे नेत्रों से निरंतर प्रेमाश्रुओं की वर्षा होगी?
 
 
(5) कब मैं नवद्वीप में गंगा के किनारे निष्कपट (प्रेमपूर्वक) हा गौर! हा निताई! बोलते हुए, नाचते-गाते हुए एक पागल वयक्ति की भाँति लोक-लज्जा का परित्याग करके इधर-उधर भागता रहूँगा?
 
 
(6) अहो! कब भगवान्‌ नित्यानंद प्रभु कृपापूर्वक मुझे भौतिक भोग की आसक्ति को त्यागने के लिए प्रेरित करेंगे? वे कब मुझे अपने चरणकमलों की छाया प्रदान करेंगे तथा मुझे निरपराध होकर भगवान्‌ हरि के पवित्र नाम का जप करने की योग्यता प्रदान करेंगे?
 
 
(7) मैं कब पवित्र नाम के रस को खरीदूँगा या चुराने में समर्थ बन पाऊँगा? कब मैं पवित्र नाम के रस द्वारा पूर्णतया मदोन्मत्त हो जाऊँगा? कब मैं उन रसिक वैष्णवों के चरणकमलों का संग प्राप्त कर सकूँगा जो प्रेमास्वादन करने में पारंगत हैं? कब मैं निरंतर दिवय प्रेमरस में आप्लावित रहूँगा?
 
 
(8) कब समस्त जीवों के प्रति मेरे हृदय में दया उदित होगी जिससे मैं अपना सुख भूलकर, एक विनम्र दास बन सकूँगा? अत्यन्त विनम्रतापूर्वक श्रील भक्तिविनोद ठाकुर भगवान्‌ के उपदेशों का प्रचार करने का निश्चय करते हैं।
 
 
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