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निज कर्म दोष फले  |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर |
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हरि हे!
निज कर्म दोष फले, पदि भवार्णव जले,
हबुडुबू खार्इ कतकाल
साँतरि साँतरि जाइ, सिंधु अंत नाहि पाइ,
भवसिंधु अनंत विशाल॥1॥ |
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निमग् होइनु जबे, डाकिनु कातर रबे,
केह मोरे करहो उद्धार
सेर्इ काले आइले तुमि, तोम ज्ञानि’ कुलभुमि,
आशाबीज होइलो आमार॥2॥ |
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तुमि हरि दयामय, पाइले मोरे सुनिश्चय,
सर्वोत्तम दयार विषय
तोमाके ना छाडि’ आर, ए भक्तिविनोद छार,
दयापात्रे पाइले दयामय॥3॥ |
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शब्दार्थ |
(1) हे भगवान हरि, मेरे दूर आचरण के फल स्वरुप में भवसागर में गिर गया हूँ तथा अनादि काल से यहां डूब रहा हूँ। हालांकि मैं इस असीमित बृहत् सागर को तैर कर पार करने का प्रयास कर रहा हूँ परंतु मुझे किनारा नहीं मिल रहा। |
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(2) जब मैं सागर में डूबा जा रहा था तो मैंने कारुणिक पुकार लगाई "कोई है जो कृपया मेरी रक्षा करें। " उस समय आप मेरी रक्षा करने हेतु प्रकट हुए। क्योंकि आप परम आश्रय हैं, मुझे आशा की एक किरण दिखी। |
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(3) हे परम दयालु भगवान हरि, आपको अपनी दया प्रदर्शित करने के लिए सर्वाधिक सुयोग्य पात्र मिल गया है। अब कि मुझे आपकी दया प्राप्त करने का यह सुअवसर मिला है, मैं कभी भी आपके चरण कमलों का आश्रय नहीं त्यागूँगा। यह अत्यंत दीन हीन श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की इच्छा है। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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