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मानस-देह-गेह  |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर |
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मानस-देह-गेह, यो किछु मोर।
अर्पिलु तुया पदे, नन्दकिशोर!॥1॥ |
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संपदे-विपदे, जीवने-मरणे।
दाय मम गेला तुया ओ-पद वरणे॥2॥ |
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मारबि राखबि जो इच्छा तोहार
नित्यदास-प्रति तुया अधिकार॥3॥ |
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जन्माओबि मोए इच्छा यदि तोर।
भक्त-गृहे जनि जन्म हउ मोर॥4॥ |
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कीट-जन्म हउ यथा तुया दास।
बहिर्मुख ब्रह्माजन्मे नाहि आश॥5॥ |
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भुक्ति-मुक्ति-स्पृहा विहीन ये भक्त।
लभइते ताँक संग अनुरक्त॥6॥ |
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जनक-जननी दयित तनय।
प्रभु, गुरु, पति तुहुँ सर्वमय॥7॥ |
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भकतिविनोद कहे, शुन कान!
राधा-नाथ! तुहुँ आमार पराण। ॥8॥ |
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शब्दार्थ |
(1) हे नन्द महाराज के पुत्र, मेरा मन, शरीर, मेरे घर का साज-सामान तथा अन्य जो कुछ भी मेरा है, मैं आपके चरणकमलों पर अर्पित करता हूँ। |
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(2) आपके चरणकमलों का आश्रय लेने से मेरी समस्त जिम्मेदारियाँ - चाहे वे सुख में हों, भय में, जीवन में, अथवा मृत्यु में समाप्त हो चुकी हैं। |
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(3) आप चाहें तो मुझे मारें अथवा जीवित रखें, आपको पूरा अधिकार है। आपकी जो कुछ भी इच्छा हो, उसे कार्यान्वित करने हेतु आप स्वतन्त्र हैं, क्योंकि मैं तो आपका नित्य दास हूँ। |
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(4) यदि आप चाहते हैं कि मेरा पुनः जन्म हो तो मेरा एक ही निवेदन है कि मैं भक्त के घर में जन्म लूँ। |
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(5) यदि मुझे कीड़े का जन्म भी लेना पड़े तो आपका दासत्व मिले, यही मेरी अभिलाषा है। परन्तु, ब्रह्मा का जन्म भी मुझे कदापि स्वीकार नहीं, यदि मुझे आपसे बहिर्मुख होना पड़े। |
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(6) मैं आपके उन भक्तों का संग करने की कामना करता हूँ जो भौतिक भोग-विलास तथा मुक्ति की इच्छाओं से रहित हैं। |
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(7) आप मेरे पिता-माता, प्रेमी, पुत्र, स्वामी, आध्यात्मिक गुरु, एवं पति हैं। वस्तुतः मेरे लिए आप ही सब कुछ हैं। |
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(8) श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं, “हे कृष्ण! कृपया मेरी प्रार्थना सुनिए। हे राधारानी के प्रियतम नाथ! आप मेरे जीवन एवं प्राण हैं। ” |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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