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गुरुदेव! बड़ कृपा करि  |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर |
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गुरुदेव!
बड़ कृपा करि’, गौड़-वन माझे,
गोद्रुमे दियाछ स्थान।
आज्ञा दिल मोरे, एइ व्रजे बसि’,
हरि-नाम कर गान॥1॥ |
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किन्तु कबे प्रभु, योग्यता अर्पिबे,
ए-दासेरे दया करि’।
चित्त स्थिर ह’बे, सकल सहिब,
एकान्ते भजिब हरि॥2॥ |
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शैशव-यौवने, जड़-सुख-संगे,
अभ्यास हइल मन्द।
निज-कर्म-दोषे, ए-देह हइल,
भजनेर प्रतिबन्ध॥3॥ |
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वार्द्धक्ये एखन, पन्च-रोगे हत,
केमने भजिब बल’।
काँदिया-काँदिया, तोमार चरणे,
पड़ियाछि सुविह्वल॥4॥ |
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शब्दार्थ |
(1) हे गुरुदेव! अत्यन्त कृपापूर्वक आपने मुझे गौर-मंडल के वन में स्थित गोद्रुम नामक स्थान में वास प्रदान किया। आपने मुझे आज्ञा दी, “इस स्थान पर वास करो जो कि व्रज के समान ही है तथा भगवान् हरि के पवित्र नाम का जप-कीर्तन करो। ” |
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(2) परन्तु, मेरे प्रिय स्वामी! कब आप मुझे पवित्र नाम का जप-कीर्तन करने की योग्यता प्रदान करेंगे? एकमात्र तब ही मेरा मन स्थिर हो पाएगा तथा मैं समस्त भौतिक विपदाओं को सहन करना सीख सकूँगा। इस प्रकार, मैं भगवान् हरि की पूजा करने में सक्षम हो सकूँगा। |
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(3) बाल्यावस्था तथा युवावस्था में इन्द्रिय-तृप्ति में संलग्न होने के कारण मुझमें अनेक कुवृत्तियाँ उत्पन्न हुई हैं। मेरे कुकर्मो के कारण मेरा शरीर परम भगवान् की भक्ति की राह में एक विघ्न बन गया है। |
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(4) अब वृद्धावस्था में मैं विभिन्न वयाधियों से ग्रस्त हूँ। इस अवस्था में मैं किस प्रकार भगवान् की आराधना करने में सक्षम हो सकूँगा? मैं आपके चरण कमलों में गिरकर अतिशय निराशापूर्वक रुदन करता हूँ। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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