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कबे गौर-वने  |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर |
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कबे गौर-वने, सुरधुनि-तटे,
हा राधे हा कृष्ण बले।
काँदिया बेड़ाब, देह-सुख छाडि,’
नाना लता-तरु-तले॥1॥ |
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(कबे) श्वपच-गृहेते, मागिया खाइब,
पिब सरस्वती-जल।
पुलिने पुलिने, गड़ा-गड़ि दिब,
करि’, कृष्ण-कोलाहल॥2॥ |
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(कबे) धाम-वासी जने, प्रणति करिया,
मागिब कृपार लेश।
वैष्णव-चरण-रेणु गाय माखि’
धरि, अवधुत वेश॥3॥ |
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(कबे) गौड़-ब्रज-वने, भेद ना देखिब
हइब बरज-वासी।
(तखन) धामेर स्वरूप, स्फुरिबे नयने,
हइब राधार दासी॥4॥ |
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शब्दार्थ |
(1) वह दिन कब आएगा जब गंगाजी के तट पर स्थित नवद्वीप के वनों में मैं-”हे राधे! हे कृष्ण!” का उच्च स्वर में उद्घोष करूँगा? कब मैं निज देह-सुख त्याग कर विभिन्न वृक्ष-लताओं के तल में रोते हुए भ्रमण करूँगा? |
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(2) कब मैं चाण्डाल के घर से भिक्षा में प्राप्त भोजन ग्रहण कर तथा सरस्वती नदी के जल से अपनी पिपासा का शमन करके गंगाजी के तट पर स्थित वनों में धरती पर कृष्ण की महिमा का गान करता हुआ लुढ़कूँगा? |
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(3) कब मैं धामवासियों को अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करूँगा एवं उनसे उनकी कृपा की भिक्षा माँगूगा? कब मैं अवधूत-वेष धारण कर, वैष्णवों की चरणरज अपने देह पर धारण करूँगा? |
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(4) जब मैं गौड़वन (नवद्वीप) एवं वृन्दावन को परस्पर अभिन्न मानूँगा, तब वास्तव में मैं ब्रजवासी कहलाऊँगा। उस समय, धाम का वास्तविक दिवय स्वरूप मेरे नयनों के समक्ष प्रकट होगा तथा मुझे श्री राधा की दासी बनने का सुअवसर प्राप्त होगा। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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