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श्री-कृष्ण-चैतन्य प्रभु  |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर |
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श्री-कृष्ण-चैतन्य प्रभु जीवे दया करि’।
स्व-पार्षद स्वीय धाम सह अवतरि’॥1॥ |
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अत्यन्त दुर्लभ प्रेम करिबारे दान।
शिखाय शरणागति भकतेर प्राण॥2॥ |
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दैन्य, आत्मनिवेदन, गोप्तृत्वे वरण।
‘अवश्य रक्षिबे कृष्ण’-विश्वास, पालन॥3॥ |
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भक्ति-अनुकूल-मात्र कार्येर स्वीकार।
भक्ति-प्रतिकूल-भाव वर्जन-अंगीकार॥4॥ |
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षडंग शरणागति हइबे याँहार।
ताँहार प्रार्थना शुने श्री-नन्द-कुमार॥5॥ |
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रूप-सनातन-पदे दन्ते तृण करि’।
भकतिविनोद पड़े दूहूँ पद धरि’॥6॥ |
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काँदिया काँदिया बले-’आमि त’ अधम।
शिखाये शरणागति कर-हे उत्तम॥7॥ |
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शब्दार्थ |
(1) पतित जीवात्माओं पर दयावश, भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस संसार में अपने पार्षदों एवं निज धाम सहित अवतीर्ण हुए। |
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(2) श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त दुर्लभ कृष्णप्रेम का दान दिया तथा उन्होंने शरणागति के सिद्धांत सिखाए, जो कि भक्तों के जीवन एवं प्राण हैं। |
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(3) शरणागति के सिद्धांत हैं - विनम्रता, कृष्ण के प्रति आत्म-समर्पण, कृष्ण को अपना पालनकर्ता स्वीकार करना, यह दृढ़ विश्वास होना कि कृष्ण अवश्य ही रक्षा करेंगे, |
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(4) उन कार्यो को स्वीकार करना जो कृष्ण भक्ति के अनुकूल हों तथा उन कार्यो को त्यागना जो कृष्ण भक्ति के प्रतिकूल हों। |
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(5) कृष्ण, जो कि नन्द महाराज के पुत्र हैं, उन लोगों की प्रार्थनाएँ सुनते हैं जिन्होंने शरणागति के इन छः सिद्धांतों को आत्मसात् कर लिया है। |
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(6) अपने दाँतों में घास का तिनका रखकर, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर श्री रूप गोस्वामी एवं श्री सनातन गोस्वामी के चरणकमलों पर गिरते हैं। |
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(7) रोते-रोते वे कहते हैं, “मैं सर्वाधिक पतित हूँ। अतएव, कृपा करके मुझे शरणागति की शिक्षा देकर उत्तम बना दीजिये। ” |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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