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कि रूपे पाइब सेवा  |
श्रील नरोत्तमदास ठाकुर |
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कि रूपे पाइब सेवा मुइ दुराचार।
श्रीगुरु-वैष्णवे रति ना हैल आमार॥1॥ |
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अशेष मायाते मन मगन हइल।
वैष्णवेते लेशमात्र रति ना जन्मिल॥2॥ |
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विषय भुलिया अन्ध हैनु दिवानिशि।
गले फाँस दिते फिरे माया से पिशाची॥3॥ |
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इहारे करिया जय छाड़ान ना याय़।
साधु कृपा बिना आर नाहिक उपाय॥4॥ |
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अदोष-दरशि प्रभु, पतित उद्धार।
एइबार नरोत्तमे करह निस्तार॥5॥ |
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शब्दार्थ |
(1) ओह! मुझे श्रीगुरु-वैष्णवों के चरणों में लेश मात्र भी रति नहीं है, मैं पापी, दुराचारी हूँ। अतः किस प्रकार भगवान् की सेवा प्राप्त करूँगा? |
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(2) मेरा मन सर्वदा विषयों में मग्न रहता है तथा मुझे वैष्णवों में लेश मात्र भी अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ। |
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(3) दिन-रात विषयभोगों के कारण मैं अन्धा हो गया हूँ। गले में फंदा डालने के लिए मायारूपी पिशाची मेरे पीछे-पीछे घूम रही है। |
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(4) अब, तो साधु (वैष्णवों) की कृपा के अतिरिक्त इस मायारूपी पिशाची से बचने का काई उपाय नहीं दीखता। |
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(5) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर कहते हैं कि, ‘‘हे वैष्णव ठाकुर! आप तो पतितों के उद्धारक, अदोषदर्शी हैं, अतः इस बार मेरा उद्धार कीजिए। ’’ |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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