वैष्णव भजन » हरि हरि! कि मोर |
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| | हरि हरि! कि मोर  | श्रील नरोत्तमदास ठाकुर | भाषा: हिन्दी | English | தமிழ் | ಕನ್ನಡ | മലയാളം | తెలుగు | ગુજરાતી | বাংলা | ଓଡ଼ିଆ | ਗੁਰਮੁਖੀ | | | | हरि हरि! कि मोर करमगति मन्द।
ब्रजे राधाकृष्ण पद, ना सेविनु तिल-आध,
ना बुझिनु रागेर सम्बन्ध॥1॥ | | | स्वरूप, सनातन, रूप, रघुनाथ, भट्ट-युगौ,
भूगर्भ, श्रीजीव, लोकनाथ।
इहाँ सबार पाद-पद्म, ना सेविनु तिल-आध,
आर किसे पुरिबेक साध॥2॥ | | | कृष्णदास कविराज, रसिक भकत-माझ,
जे रचिल चैतन्य-चरित।
गौर-गोविन्द-लीला, शुनिले गलाय शिला,
ना डुबिल ताहे मोर चित॥3॥ | | | ताँहार भक्तेर-संग, ताँर संगे य़ार संग,
तार संगे केन नाहिल वास।
कि मोर दुःखेर कथा, जनम गोयाइनु वृथा,
धिक धिक नरोत्तमदास॥4॥ | | | शब्दार्थ | (1) हे भगवान हरि! मैं कितना आभागा हूँ। मैंने श्रीश्री राधाकृष्ण की एक क्षण के लिए भी व्रज में सेवा नहीं की और न ही मैं अपने दिवय सम्बन्ध को समझ सका। | | | (2) हाय! मैंने आधे क्षण के लिए भी श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, श्रील रूप गोस्वामी, श्रील रघुनाथदास गोस्वामी, श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी, श्रील भूगर्भ गोस्वामी, श्रील जीव गोस्वामी और श्रील लोकनाथ गोस्वामी के चरणकमलों की सेवा नहीं की, फिर कैसे मेरी अभिलाषा की पूर्ति हो सकती है। | | | (3) श्रील कृष्णदास कविराज जो भक्तों में रसिककुल मुकुटमणि हैं, जिन्होंने ‘श्री चैतन्यचरितामृत’ एवं ‘गोविन्द लीलामृत’ की रचना की, जिनमें श्रीगौर-गोविंद की अमृतमयी लीलाओं का वर्णन है। इन दोनों के श्रवण से पाषाण भी पिघल गये परन्तु हाय! मेरा मन उनकी ओर आकर्षित नहीं हुआ। | | | (4) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर आगे कहते है, ‘‘मैंने इन वैष्णवों के मित्रों तथा संगियों का संग न पाकर अपना जीवन वयर्थ ही गवाँ दिया। यह मेरे जीवन की दुःखद कथा है। यह कितनी निर्लज्जता की बात हैं। ’’ | | | हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ | | |
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