श्री रामचरितमानस » काण्ड 2: अयोध्या काण्ड » दोहा 325 |
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| | काण्ड 2 - दोहा 325  | नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति॥325॥ | | अनुवाद | | वह प्रतिदिन भगवान के चरणों की पूजा करता है, उसका हृदय उनके प्रति प्रेम से भरा रहता है। वह चरणों से अनुमति लेकर सभी प्रकार के राजसी कार्य संपन्न करता है। | | He worships the Lord's feet every day, his heart is filled with love for them. He performs all kinds of royal tasks by seeking permission from the feet. |
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