श्री रामचरितमानस » काण्ड 2: अयोध्या काण्ड » चौपाई 315.2 |
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| | काण्ड 2 - चौपाई 315.2  | मोर तुम्हार परम पुरुषारथु। स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु॥
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाईं। लोक बेद भल भूप भलाईं॥2॥ | | अनुवाद | | मेरे और तुम्हारे लिए परमार्थ, स्वार्थ, यश, धर्म और परोपकार इसी में निहित है कि हम दोनों भाई अपने पिता की आज्ञा का पालन करें। राजा का हित (अपने व्रतों की रक्षा) जगत और वेद दोनों का हित है। | | For me and you, the ultimate goal, self-interest, good fame, religion and charity lies in the fact that both of us brothers obey our father's orders. The good of the king (protecting his vows) is good for both the world and the Vedas. |
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