श्री रामचरितमानस » काण्ड 2: अयोध्या काण्ड » चौपाई 298.2 |
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| | काण्ड 2 - चौपाई 298.2  | समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी॥
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाईं। मोहि समान मैं साइँ दोहाईं॥2॥ | | अनुवाद | | वह समर्थ है, शरणागतों का हित करने वाला है, सद्गुणों का आदर करने वाला है और पाप-दोषों का नाश करने वाला है। हे गोसाईं! आप ही के समान एकमात्र स्वामी हैं और अपने स्वामी के साथ द्रोह करने में मैं ही एकमात्र मेरे समान हूँ। | | He is capable, he is beneficial to those who surrender, he respects virtues and he removes vices and sins. O Gosain! You are the only master like you and I am the only one like me in betraying my master. |
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