श्री रामचरितमानस  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  चौपाई 253.3
 
 
काण्ड 2 - चौपाई 253.3 
मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥3॥
 
अनुवाद
 
 मैं अपने सेवक के बारे में क्या कहूँ? समय भी बुरा है (मेरे दिन अच्छे नहीं हैं) और विधाता भी प्रतिकूल है। अगर मैं ज़िद करूँ, तो घोर पाप (अधर्म) होगा, क्योंकि सेवक का कर्तव्य शिव के कैलाश पर्वत से भी भारी (पूरा करना कठिन) है।
 
What can I say about my servant? Time is also bad (my days are not good) and the Creator is unfavorable. If I insist, it will be a grave sin (adharma), because the duty of a servant is heavier (difficult to fulfill) than Shiva's mountain Kailash.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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