श्री रामचरितमानस  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  चौपाई 219.1
 
 
काण्ड 2 - चौपाई 219.1 
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मानत सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥1॥
 
अनुवाद
 
 हे देवराज! हमारी बात सुनो। श्री रामजी अपने सेवकों से बहुत प्रेम करते हैं। वे अपने सेवकों की सेवा करने में प्रसन्न होते हैं और अपने सेवकों से शत्रुता करना घोर शत्रुता समझते हैं।
 
O Devraj! Listen to our advice. Shri Ramji loves his servants very much. He feels happy in serving his servants and considers enmity towards his servants as a grave enmity.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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