श्री रामचरितमानस » काण्ड 1: बाल काण्ड » चौपाई 81.1 |
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| | काण्ड 1 - चौपाई 81.1  | जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥ | | अनुवाद | | हे ऋषियों! यदि आप मुझे पहले मिले होते, तो मैं आपकी बात बड़े आदर से सुनता, किन्तु अब तो मैंने भगवान शिव के लिए प्राण त्याग दिए हैं! फिर पाप-पुण्य का विचार कौन करेगा? | | O sages! If I had met you earlier, I would have listened to your advice with great respect, but now I have sacrificed my life for Lord Shiva! Then who will think about the merits and demerits? |
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