श्री रामचरितमानस » काण्ड 1: बाल काण्ड » चौपाई 307.3 |
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| | काण्ड 1 - चौपाई 307.3  | सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी॥3॥ | | अनुवाद | | अपनी लज्जा के कारण वह गुरु विश्वामित्र को यह बात बता तो नहीं सका, परन्तु उसके मन में अपने पिता से मिलने की तीव्र इच्छा थी। जब विश्वामित्र ने उसकी महान विनम्रता देखी, तो उन्हें बहुत संतोष हुआ। | | Due to his shyness, he could not tell Guru Vishwamitra, but he had a longing to meet his father. When Vishwamitra saw his great humility, he felt very satisfied. |
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