जब पुरुरवा के हृदय में धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा यज्ञ करने की विधि उद्घाटित हुई तो वह उसी स्थान पर गया था जहाँ उसने अग्निस्थाली को छोड़ दिया था। वहाँ उसने देखा कि शमी वृक्ष के एक भाग से अश्वत्थ का वृक्ष उग आया है। इस वृक्ष से उसने लकड़ी का एक टुकड़ा लिए तथा उससे दो अरणियाँ बना ली। उर्वशी के लोक जाने की इच्छा में, उसने निचली अरणी को उर्वशी, ऊपरी अरणी को स्वयं तथा बीच के काष्ठ को अपने पुत्र की कल्पना से ध्यान करते हुए मंत्रोच्चारण आरंभ किया। इस प्रकार से उसने अग्नि का प्रज्ज्वलन करना शुरू कर दिया।