श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 14: पुरुरवा का उर्वशी पर मोहित होना  »  श्लोक 44-45
 
 
श्लोक  9.14.44-45 
 
 
स्थालीस्थानं गतोऽश्वत्थं शमीगर्भं विलक्ष्य स: ।
तेन द्वे अरणी कृत्वा उर्वशीलोककाम्यया ॥ ४४ ॥
उर्वशीं मन्त्रतो ध्यायन्नधरारणिमुत्तराम् ।
आत्मानमुभयोर्मध्ये यत् तत् प्रजननं प्रभु: ॥ ४५ ॥
 
अनुवाद
 
  जब पुरुरवा के हृदय में धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा यज्ञ करने की विधि उद्घाटित हुई तो वह उसी स्थान पर गया था जहाँ उसने अग्निस्थाली को छोड़ दिया था। वहाँ उसने देखा कि शमी वृक्ष के एक भाग से अश्वत्थ का वृक्ष उग आया है। इस वृक्ष से उसने लकड़ी का एक टुकड़ा लिए तथा उससे दो अरणियाँ बना ली। उर्वशी के लोक जाने की इच्छा में, उसने निचली अरणी को उर्वशी, ऊपरी अरणी को स्वयं तथा बीच के काष्ठ को अपने पुत्र की कल्पना से ध्यान करते हुए मंत्रोच्चारण आरंभ किया। इस प्रकार से उसने अग्नि का प्रज्ज्वलन करना शुरू कर दिया।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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