प्राङ्मुखेषूपविष्टेषु सुरेषु दितिजेषु च ।
धूपामोदितशालायां जुष्टायां माल्यदीपकै: ॥ १६ ॥
तस्यां नरेन्द्र करभोरुरुशद्दुकूल-
श्रोणीतटालसगतिर्मदविह्वलाक्षी ।
सा कूजती कनकनूपुरशिञ्जितेन
कुम्भस्तनी कलसपाणिरथाविवेश ॥ १७ ॥
अनुवाद
हे राजन, जब देवता और दानव पूर्व दिशा के सामने मुख करके उस सभा मंडप में बैठ गए जो फूल मालाओं और दीपों से सजाया गया था और अगरबत्ती के धुएँ से सुगंधित हो रहा था, उसी समय अत्यंत सुंदर साड़ी पहने, पायल की झंकार करती हुई उस महिला ने मोटे नितंबों के कारण धीमी गति से चलते हुए उस सभा मंडप में प्रवेश किया। उसकी आंखें यौवन के गर्व से फूली हुई थीं, उसके स्तन जल से भरे घड़ों जैसे थे, उसकी जाँघें हाथी की सूंड जैसी दिखती थीं और वह अपने हाथ में अमृत का प्याला लिए हुए थी।