अथोपोष्य कृतस्नाना हुत्वा च हविषानलम् ।
दत्त्वा गोविप्रभूतेभ्य: कृतस्वस्त्ययना द्विजै: ॥ १४ ॥
यथोपजोषं वासांसि परिधायाहतानि ते ।
कुशेषु प्राविशन्सर्वे प्रागग्रेष्वभिभूषिता: ॥ १५ ॥
अनुवाद
तब असुरों तथा देवताओं ने उपवास किया। स्नान के बाद उन्होंने अग्नि में घृत की आहुतियाँ डाली और गायों, ब्राह्मणों तथा समाज के अन्य वर्णों—क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों— को उनकी योग्यता के अनुसार दान दिया। तत्पश्चात् असुरों तथा देवों ने ब्राह्मणों के निर्देशों के अनुसार अनुष्ठान सम्पन्न किये। तब अपनी पसंद के अनुरूप नए वस्त्र पहने, आभूषणों से अपने-अपने शरीरों को सजाया और वे पूर्व दिशा की ओर मुख करके कुश के आसनों पर बैठ गए।