ततो गृहीत्वामृतभाजनं हरि-
र्बभाष ईषत्स्मितशोभया गिरा ।
यद्यभ्युपेतं क्व च साध्वसाधु वा
कृतं मया वो विभजे सुधामिमाम् ॥ १२ ॥
अनुवाद
तत्पश्चात, भगवान विष्णु ने अमृतपात्र को अपने हाथ में लिया और थोड़ा मुस्कुराते हुए आकर्षक शब्दों में बोला, “मेरे प्रिय दैत्यो! मैं तुम लोगों में अमृत का वितरण कर सकती हूँ, लेकिन स्तिथि यह है कि तुम मेरे द्वारा किये जाने वाले किसी भी काम को, चाहे वह सही हो या गलत, स्वीकार करोगे।”