सालावृकाणां स्त्रीणां च स्वैरिणीनां सुरद्विष: ।
सख्यान्याहुरनित्यानि नूत्नं नूत्नं विचिन्वताम् ॥ १० ॥
अनुवाद
हे असुरो! जिस प्रकार बन्दर, सियार और कुत्ते अपनी कामलिप्सा में अस्थिर होते हैं और प्रतिदिन नए मित्रों की तलाश में रहते हैं, उसी प्रकार स्वच्छंद रहने वाली स्त्रियाँ भी प्रतिदिन नए मित्रों की तलाश में रहती हैं। ऐसी स्त्री से दोस्ती कभी स्थायी नहीं होती। यह विद्वानों का मानना है।