श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 7: शिवजी द्वारा विषपान से ब्रह्माण्ड की रक्षा  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  8.7.33 
 
 
ये त्वात्मरामगुरुभिर्हृदि चिन्तिताङ्‍‍घ्रि-
द्वन्द्वं चरन्तमुमया तपसाभितप्तम् ।
कत्थन्त उग्रपरुषं निरतं श्मशाने
ते नूनमूतिमविदंस्तव हातलज्जा: ॥ ३३ ॥
 
अनुवाद
 
  सारे संसार को उपदेश देने वाले महान् अहंकारी व्यक्ति अपने हृदयों में आपके चरणकमलों का निरंतर चिंतन करते हैं। परंतु जो लोग आपकी तपस्या को नहीं जानते, वे आपको उमा के साथ विचरते देखकर आपको भ्रमवश कामी समझते हैं और जब वे आपको श्मशान में घूमते हुए देखते हैं, तो वे आपको क्रूर और ईर्ष्यालु समझते हैं। निश्चित रूप से, वे लज्जित हैं। वे आपके कार्यों को कभी नहीं समझ सकते।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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