श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 7: शिवजी द्वारा विषपान से ब्रह्माण्ड की रक्षा  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  8.7.13 
 
 
उपर्यधश्चात्मनि गोत्रनेत्रयो:
परेण ते प्राविशता समेधिता: ।
ममन्थुरब्धिं तरसा मदोत्कटा
महाद्रिणा क्षोभितनक्रचक्रम् ॥ १३ ॥
 
अनुवाद
 
  देवता तथा असुर अमृत के लिए पागलों की तरह काम कर रहे थे क्योंकि उन्हें भगवान ने उत्साहित कर रखा था। वे पर्वत के ऊपर और नीचे, हर जगह थे। वे देवताओं, असुरों, वासुकि और पर्वत में भी व्याप्त थे। देवताओं तथा असुरों के बल से, क्षीर सागर इतनी शक्ति के साथ मथ रहा था कि जल के सारे मगरमच्छ बहुत परेशान हो उठे। फिर भी समुद्र का मंथन इस तरह चलता रहा।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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