श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 7: शिवजी द्वारा विषपान से ब्रह्माण्ड की रक्षा  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  8.7.1 
 
 
श्रीशुक उवाच
ते नागराजमामन्‍त्र्य फलभागेन वासुकिम् ।
परिवीय गिरौ तस्मिन् नेत्रमब्धिं मुदान्विता: ।
आरेभिरे सुरा यत्ता अमृतार्थे कुरूद्वह ॥ १ ॥
 
अनुवाद
 
  शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ महाराज परीक्षित! देवताओं और असुरों ने सर्पराज वासुकि को बुलाया और उससे वादा किया कि वे उसे अमृत में हिस्सा देंगे। उन्होंने वासुकि को मंदरा पर्वत के चारों ओर रस्सी की तरह लपेट दिया और क्षीरसागर के मंथन से अमृत प्राप्त करने का प्रयास करने लगे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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