एक एवेश्वरस्तस्मिन्सुरकार्ये सुरेश्वर: ।
विहर्तुकामस्तानाह समुद्रोन्मथनादिभि: ॥ १७ ॥
अनुवाद
यद्यपि देवताओं के स्वामी भगवान स्वयं देवताओं के कार्यों को करने में पूर्ण समर्थ थे, फिर भी उन्होंने समुद्र मंथन की लीला में स्वयं का आनंद लेना चाहा। इसलिए वे इस प्रकार बोले।