नमस्तुभ्यमनन्ताय दुर्वितर्क्यात्मकर्मणे ।
निर्गुणाय गुणेशाय सत्त्वस्थाय च साम्प्रतम् ॥ ५० ॥
अनुवाद
हे प्रभु! आपको नमस्कार है क्योंकि आप नित्य हैं, भूत, वर्तमान तथा भविष्य की काल सीमा से परे हैं। आप अपनी लीलाओं में रहस्यमयी हैं, आप भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी हैं और समस्त भौतिक गुणों से परे रहने के कारण आप भौतिक दोषों से मुक्त हैं। आप तीनों गुणों के नियन्ता हैं, लेकिन इस समय आप सद्गुण के पक्ष में हैं। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।
इस प्रकार श्रीमद् भागवतम के स्कन्ध आठ के अंतर्गत पाँचवाँ अध्याय समाप्त होता है ।