श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 5: देवताओं द्वारा भगवान् से सुरक्षा याचना  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  8.5.35 
 
 
अग्निर्मुखं यस्य तु जातवेदा
जात: क्रियाकाण्डनिमित्तजन्मा ।
अन्त:समुद्रेऽनुपचन्स्वधातून्
प्रसीदतां न: स महाविभूति: ॥ ३५ ॥
 
अनुवाद
 
  अनुष्ठानों के समय आहुति स्वीकार करने वाली अग्नि भगवान् का मुँह है। समुद्र की गहराई में भी संपत्ति उत्पन्न करने के लिए अग्नि विद्यमान रहती है और पेट में भोजन पचाने और शरीर को बनाए रखने के लिए कई तरह के रस उत्पन्न करने के लिए भी अग्नि रहती है। ऐसे सर्वशक्तिमान भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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