श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 4: गजेन्द्र का वैकुण्ठ गमन  »  श्लोक 11-12
 
 
श्लोक  8.4.11-12 
 
 
श्रीशुक उवाच
एवं शप्‍त्वा गतोऽगस्त्यो भगवान् नृप सानुग: ।
इन्द्रद्युम्नोऽपि राजर्षिर्दिष्टं तदुपधारयन् ॥ ११ ॥
आपन्न: कौञ्जरीं योनिमात्मस्मृतिविनाशिनीम् ।
हर्यर्चनानुभावेन यद्गजत्वेऽप्यनुस्मृति: ॥ १२ ॥
 
अनुवाद
 
  श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा! अगस्त्य मुनि ने राजा इन्द्रद्युम्न को शाप दिया और फिर अपने शिष्यों के साथ उस स्थान से चल दिए। चूंकि राजा भक्त थे, इसलिए उन्होंने अगस्त्य मुनि के शाप को स्वीकार किया क्योंकि भगवान की ऐसी ही इच्छा थी। इसलिए, अगले जन्म में उन्हें हाथी का शरीर मिला, लेकिन भक्ति के कारण उन्हें यह याद रहा कि भगवान की पूजा और स्तुति कैसे की जाती है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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