श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 3: गजेन्द्र की समर्पण-स्तुति  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  8.3.7 
 
 
दिद‍ृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं
विमुक्तसङ्गा मुनय: सुसाधव: ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता: सुहृद: स मे गति: ॥ ७ ॥
 
अनुवाद
 
  सभी जीवों को समान भाव से देखने वाले, सभी के मित्रवत रहने वाले तथा जंगल में ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास के व्रतों का त्रुटिरहित अभ्यास करने वाले विरक्तजन और महामुनि भगवान के सर्वकल्याणकारी चरण कमलों का दर्शन पाने के इच्छुक रहते हैं। वही भगवान् मेरा भी गंतव्य हों।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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