श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 3: गजेन्द्र की समर्पण-स्तुति  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  8.3.32 
 
 
सोऽन्त:सरस्युरुबलेन गृहीत आर्तो
द‍ृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम् ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रा-
न्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते ॥ ३२ ॥
 
अनुवाद
 
  जल में घड़ियाल ने गजेंद्र को जबरदस्ती पकड़ रखा था, जिससे उसे अत्यधिक वेदना हो रही थी। किंतु जब उसने देखा कि नारायण अपने चक्र को घुमाते हुए गरुड़ की पीठ पर बैठकर आकाश में आ रहे हैं, तो उसने तुरंत अपनी सूंड़ में कमल का एक फूल ले लिया और अपनी पीड़ा के कारण अत्यंत कठिनाई से निम्नलिखित शब्द कहे, “हे भगवान, नारायण, हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे परमेश्वर! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।”
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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