श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 3: गजेन्द्र की समर्पण-स्तुति  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  8.3.25 
 
 
जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम् ॥ २५ ॥
 
अनुवाद
 
  घडियाल के आक्रमण से मुक्त हो जाने के बाद अब मैं और ज्यादा जीवित नहीं रहना चाहता हूँ। ऐसा हाथी के शरीर से क्या फायदा जो अंदर और बाहर दोनों तरफ से अज्ञानता से ढका हुआ है? मैं तो सिर्फ अज्ञानता के आवरण से हमेशा के लिए मुक्ति चाहता हूँ। यह आवरण समय के प्रभाव से नष्ट नहीं होता।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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