श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 3: गजेन्द्र की समर्पण-स्तुति  »  श्लोक 22-24
 
 
श्लोक  8.3.22-24 
 
 
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचरा: ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृता: ॥ २२ ॥
यथार्चिषोऽग्ने: सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिष: ।
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो
बुद्धिर्मन: खानि शरीरसर्गा: ॥ २३ ॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ्
न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तु: ।
नायं गुण: कर्म न सन्न चासन्
निषेधशेषो जयतादशेष: ॥ २४ ॥
 
अनुवाद
 
  भगवान अपने सूक्ष्म अंश जीव तत्व की सृष्टि करते हैं जिसमें ब्रह्मा, देवता तथा वैदिक ज्ञान के अंग (साम, ऋग्, यजुर् तथा अथर्व) से लेकर अपने-अपने नामों तथा गुणों सहित समस्त चर तथा अचर प्राणी सम्मिलित हैं। जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग या सूर्य की चमकीली किरणें अपने स्रोत से निकल कर पुन: उसी में समा जाती हैं उसी प्रकार मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, स्थूल भौतिक तथा सूक्ष्म भौतिक शरीर तथा प्रकृति के गुणों के सतत रूपान्तर (विकार)—ये सभी भगवान् से उद्भूत होकर पुन: उन्हीं में समा जाते हैं। वे न तो देव हैं न दानव, न मनुष्य न पक्षी या पशु हैं। वे न तो स्त्री या पुरुष या क्लीव हैं और न ही पशु हैं। न ही वे भौतिक गुण, सकाम कर्म, प्राकट्य या अप्राकट्य हैं। वे “नेति-नेति” का भेदभाव करने में अन्तिम शब्द हैं और वे अनन्त हैं। उन भगवान् की जय हो।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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