श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 3: गजेन्द्र की समर्पण-स्तुति  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  8.3.17 
 
 
माद‍ृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्द‍ृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥ १७ ॥
 
अनुवाद
 
  चूँकि मैं जैसे पशु ने परममुक्त आपकी शरण ग्रहण की है, अतएव आप निश्चित ही मुझे इस संकटमय स्थिति से उद्धार देंगे। निस्संदेह, अत्यंत दयालु होने के कारण आप निरंतर मेरा उद्धार करने का प्रयास करते हैं। आप परमात्मा के रूप में समस्त देहधारी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं। आपको प्रत्यक्ष दिव्य ज्ञान के रूप में जाना जाता है और आप असीम हैं। हे भगवान! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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