श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 3: गजेन्द्र की समर्पण-स्तुति  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  8.3.10 
 
 
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥ १० ॥
 
अनुवाद
 
  आत्मप्रकाशित परमात्मा को, जो हरेक हृदय में साक्षी के रूप में विराजमान हैं, व्यष्टि जीवात्मा को प्रकाशमान करते हैं और जिन तक मन, वचन या चेतना की कोशिशों से नहीं पहुँचा जा सकता, उन्हें मेरा विनम्र प्रणाम।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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