श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 24: भगवान् का मत्स्यावतार  »  श्लोक 53
 
 
श्लोक  8.24.53 
 
 
त्वं त्वामहं देववरं वरेण्यं
प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय ।
छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन् वचोभि-
र्ग्रन्थीन् हृदय्यान् विवृणु स्वमोक: ॥ ५३ ॥
 
अनुवाद
 
  हे परमेश्वर! आत्म-साक्षात्कार हेतु मैं आपकी शरण में आता हूँ, आपको देवता भी सर्वशक्तिमान स्वामी मानकर पूजते हैं। आप अपने उपदेशों से जीवन के उद्देश्य को समझाते हैं, कृपया मेरे हृदय के गांठ को काटकर मुझे जीवन का लक्ष्य बतलाइये।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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