श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 24: भगवान् का मत्स्यावतार  »  श्लोक 50
 
 
श्लोक  8.24.50 
 
 
अचक्षुरन्धस्य यथाग्रणी: कृत-
स्तथा जनस्याविदुषोऽबुधो गुरु: ।
त्वमर्कद‍ृक् सर्वद‍ृशां समीक्षणो
वृतो गुरुर्न: स्वगतिं बुभुत्सताम् ॥ ५० ॥
 
अनुवाद
 
  जैसे एक अंधा व्यक्ति देख न सकने के कारण किसी और अंधे को अपना नेता मान लेता है, ठीक वैसे ही जो लोग जीवन के लक्ष्य को नहीं जानते हैं, वे किसी न किसी धूर्त और मूर्ख को अपना गुरु बना लेते हैं । लेकिन हमारा लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, इसलिए हम आपको अपना गुरु स्वीकार करते हैं क्योंकि आप सभी दिशाओं में देखने में सक्षम हैं और सूर्य की तरह सर्वज्ञ हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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